चतुविंशत्यधिकशततम (124) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद
तब उस ब्राह्मण ने दैत्यराज से कहा- ‘आपने मेरी सारी अभिलाषा पूर्ण कर दी’। यह सुनकर प्रह्लाद और भी प्रसन्न हुए और बोले’ ‘कोई वर अवश्य मांगों। ब्राह्मण बोला- राजन! यदि आप प्रसन्न हैं और मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मुझे आपका ही शील प्राप्त करने की इच्छा है, यही मेरा वर है। यह सुनकर दैत्यराज प्रह्लाद प्रसन्न भी हुए; परंतु उनके मन में बड़ा भारी भय समा गया। ब्राह्मण के वर मांगने पर वे सोचने लगे कि यह कोई साधारण तेजवाला पुरुष नहीं हैं। फिर भी ‘एवमस्तु’ कहकर प्रह्लाद ने वह वर दे दिया। उस समय उन्हें बड़ा विस्मय हो रहा था। ब्राह्मण को वह वर देकर वह बहुत दु:खी हो गये। महाराज! वर देने के पश्चात जब ब्राह्मण चला गया, तब प्रह्लाद को बड़ी भारी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे-क्या करना चाहिये? परंतु किसी निश्चय पर पहुँच न सके। तात! वे चिन्ता कर ही रहे थे कि उनके शरीर से परम कान्तिमान छायामय तेज मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ। उसने उनके शरीर को त्याग दिया था। प्रह्लाद ने उस विशालकाय पुरुष से पूछा- ‘आप कौन हैं?’ उसने उत्तर दिया- ‘मैं शील हूँ। तुमने मुझे त्याग दिया है, इसलिये मैं जा रहा हूँ। राजन! अब मैं उस अनिन्दित श्रेष्ठ ब्राह्मण के शरीर में निवास करुँगा, जो प्रतिदिन तुम्हारा शिष्य बनकर यहाँ बड़ी सावधानी के साथ रहता था। प्रभो! ऐसा कहकर शील अदृश्य हो गया और इन्द्र के शरीर में समा गया। उस तेज के चले जाने पर प्रह्लाद के शरीर से दूसरा वैसा ही तेज प्रकट हुआ। प्रह्लाद ने पूछा- आप कौन है? उसने उत्तर दिया- ‘प्रह्लाद! मुझे धर्म समझो जहाँ वह श्रेष्ठ ब्राह्मण है, वहीं जाऊँगा। दैत्यराज! जहाँ शील होता है, वहीं मैं भी रहता हूँ। महाराज! तदनन्तर महात्मा प्रह्लाद के शरीर से एक तीसरा पुरुष प्रकट हुआ, जो अपने तेज से प्रज्वलित-सा हो रहा था। ‘आप कौन हैं? ‘यह प्रश्न होने पर उस महातेजस्वी ने उन्हें उत्तर दिया- ‘असुरेन्द्र! मुझे सत्य समझो! मैं अब धर्म के पीछे-पीछे जाऊँगा’। सत्य के चले जाने पर प्रह्लाद के शरीर से दूसरा महापुरुष प्रकट हुआ। परिचय पूछने पर उस महाबली ने उत्तर दिया- प्रह्लाद! मुझे सदाचार समझो। जहाँ सत्य होता है, वहीं मैं भी रहता हूँ। उसके चले जाने पर प्रह्लाद के शरीर से महान शब्द करता हुआ पुन: एक पुरुष प्रकट हुआ। उसने पूछने पर बताया- ‘मुझे बल समझों। जहाँ सदाचार होता है, वहीं मेरा भी स्थान है’। नरेश्वर! ऐसा कहकर बल सदाचार के पीछे चला गया। तत्पश्चात प्रह्लाद के शरीर से एक प्रभावमयी देवी प्रकट हुई। दैत्यराज ने उससे पूछा- ‘आप कौन हैं?’ वह बोली- ‘मैं लक्ष्मी हूँ। सत्यपराक्रमी वीर! मैं स्वयं ही आकर तुम्हारे शरीर मे निवास करती थी, परंतु अब तुमने मुझे त्याग दिया; इसलिये चली जाऊँगी; क्योंकि मैं बल की अनुगामिनी हूँ। तब महात्मा प्रह्लाद को बड़ा भय हुआ। उन्होंने पुन: पूछा– ‘कमलालये! तुम कहाँ जा रही हों, तुम तो सत्यव्रता देवी और सम्पूर्ण जगत की परमेश्वरी हो। वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कौन था यह मैं ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ। लक्ष्मी ने कहा- प्रभो! तुमने जिसे उपदेश दिया हैं, उस ब्रह्मचारी ब्राह्मण के रुप में साक्षात इन्द्र थे। तीनों लोकों में जो तुम्हारा ऐश्वर्य फैला हुआ था, वह उन्होंने हर लिया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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