अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम (278) अध्याय: वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
महाभारत: वन पर्व: अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 15-33 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार वह श्रीरामचन्द्र जी को आश्रम से बहुत दूर खींच ले गया। तब श्रीरामचन्द्र जी यह ताड़ गये कि यह कोई मायावी राक्षस है। यह बात ध्यान में आते ही प्रतिभाशाली श्रीरघुनाथ जी ने एक अमोघ बाण लेकर उस मृगरूपधारी निशाचर को मार डाला। श्रीरामचन्द्र जी के बाण से आहत हो मरते समय मारीच ने उनके ही स्वर में ‘हा सीते, हा लक्ष्मण’ कहकर आर्तनाद किया। विदेहनन्दिनी सीती ने भी उनकी वह करुणा भरी पुकार सुनी। उसकी पुकार सुनते ही जिस ओर से वह आवाज आयी थी, उसी ओर वे दौड़ पड़ीं। तब लक्ष्मण ने उनसे कहा- ‘भीरु! डरने की कोई बात नहीं है। भला, कौन ऐसा है, जो भगवान राम को मार सकेगा? शुचिस्मिते! तुम दो ही घड़ी में अपने पति भगवान श्रीराम को यहाँ उपस्थित देखोगी।' लक्ष्मण की यह बात सुनकर रोती हुई सीता ने उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा। वे साध्वी और पतिव्रता थीं तथापि स्त्री-स्वभाववश उस समय उनकी बुद्धि मारी गयी। उन्होंने लक्ष्मण को कठोर बातें सुनानी आरम्भ कीं- ‘ओ मूढ़! तुम मन-ही-मन जिस वस्तु को पाना चाहते हो, तुम्हारा वह मनोरथ कभी पूर्ण न होगा। मैं स्वयं तलवार लेकर अपना गला काट लूँगी, पर्वत के शिखर से कूद पढ़ूँगी अथवा जलती हुई आग में समा जाऊँगी, परंतु राम जैसे स्वामी को छोड़कर तुम जैसे नीच पुरुष का कदापि वरण न करूँगी। जैसे सिंहिनी सियार को नहीं स्वीकार कर सकती, उसी प्रकार मैं तुम्हें नहीं ग्रहण करूँगी’। लक्ष्मण सदाचारी तथा श्रीरामचन्द्र जी के प्रेमी थे। उन्होंने सीता के कठोर वचन सुनकर अपने दोनों कान बंद कर लिये और मार्ग से चल दिये, जिससे श्रीरामचन्द्र जी गये थे। उस समय उनके हाथ में धनुष था। उन्होंने बिम्बफल के समान अरुण अधरों वाली सीता की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं। श्रीराम के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए उन्होंने वहाँ से प्रस्थान कर दिया। इसी समय अवसर पाकर राक्षस रावण साध्वी सीता को हर ले जाने की इच्छा से वहाँ दिखायी दिया। वह भयानक निशाचर सुन्दर रूप धारण करके राख में छिपी हुई आग के समान संन्यासी के वेष में अपने यथार्थ रूप को छिपाये हुए था।। उस समय यति को अपने आश्रम पर आया हुआ देख धर्म को जानने वाली जनकनन्दिनी सीता ने फल-मूल के भोजन आदि से अतिथि सत्कार के लिये उसे निमन्त्रित किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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