अशीत्यधिकशततम (180) अध्याय: वन पर्व (अजगर पर्व)
महाभारत: वन पर्व: अशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद
सर्प बोला- युधिष्ठिर! सत्य एवं प्रमाणभूत ब्रह्मा तो चारों वर्णों के लिये हितकर है। सत्य, दान, अक्रोध, क्रूरता का अभाव, अहिंसा और दया आदि सद्गुण तो शूद्रों में भी रहते हैं। नरेश्वर! तुमने यहाँ जो जानने योग्य तत्त्व को दुःख और सुख से परे बताया है, सो दुःख और सुख से रहित किसी दूसरी वस्तु की सत्ता ही मैं नहीं देखता हूँ। युधिष्ठिर ने कहा- यदि शूद्र में सत्य आदि उपर्युक्त लक्षण हैं और ब्राह्मण में नहीं हैं तो वह शूद्र शूद्र नहीं है और वह ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है। सर्प! जिसमें ये सत्य आदि लक्षण मौजूद हों, वह ब्राह्मण माना गया है और जिसमें इन लक्षणों का अभाव हो, उसे शूद्र कहना चाहिये। अब तुमने जो यह कहा कि सुख-दुःख से रहित कोई दूसरा वेद्य तत्त्व है ही नहीं, सो तुम्हारा यह मत ठीक है। सुख-दुःख से शून्य कोई पदार्थ नहीं है, किंतु एक ऐसा पद है भी। जिस प्रकार बर्फ में उष्णता और अग्नि में शीतलता कहीं नहीं रहती, उसी प्रकार जो वेद्य-पद है, वह वास्तव में सुख-दुःख से रहित ही है। नागराज! मेरा तो यही विचार है, फिर आप जैसा मानें। सर्प बोला- आयुष्मान् नेरश! यदि आचार से ही ब्राह्मण की परीक्षा की जाये, तब तो जब तक उसके अनुसार कर्म न हो जाति व्यर्थ ही है। युधिष्ठिर ने कहा- महासर्प! महामते! मनुष्यों में जाति की परीक्षा करना बहुत ही कठिन है; क्योंकि इस समय सभी वर्णों का परस्पर संकर (सम्मिश्रण) हो रहा है, ऐसा मेरा विचार है। सभी मनुष्य सदा सब जातियों की स्त्रियों से संतान उत्पन्न कर रहे हैं। वाणी, मैथुन तथा जन्म और मरण-ये सब मनुष्यों में एक से देखे जाते हैं। इस विषय में यह आर्षप्रमाण भी मिलता है- 'ये यजामहे' यह श्रुति जाति का निश्चय न होने के कारण ही जो हम लोग यज्ञ कर रहे हैं; ऐसा सामान्य रूप से निर्देश करती है। इसलिये जो तत्त्वदर्शी विद्वान् हैं, वे शील को ही प्रधानता देते हैं और उसे ही अभीष्ट मानते हैं। जब बालक का जन्म होता है, तब नालच्छेदन के पूर्व उसका जातकर्म-संस्कार किया जाता है। उसमें उसकी माता सावित्री कहलाती है और पिता आचार्य। जब तक बालक का संस्कार करके उसे वेद का स्वाध्याय न कराया जाये, तब तक वह शूद्र ही के समान है। जाति विषयक संदेह होने पर स्वायम्भुव मनु ने यही निर्णय दिया है। नागराज! यदि वैदिक संस्कार करके वेदाध्ययन करने पर भी ब्राह्मणादि वर्णों में अपेक्षित शील और सदाचार का उदय नहीं हुआ तो उसमें प्रबल वर्ण संकरता है, ऐसा विचारपूर्वक निश्चय किया गया है। महासर्प! भुजंगमप्रवर! इस समय जिसमें संस्कार के साथ-साथ सदाचार की उपलब्धि हो, वही ब्राह्मण है। यह बात मैं पहले ही बता चुका हूँ। सर्प बोला- युधिष्ठिर! तुम जानने योग्य सभी बातें जानते हो। मैंने तुम्हारी बात अच्छी तरह सुन ली। अब मैं तुम्हारे भाई भीमसेन को कैसे खा सकता हूँ?
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आजगरपर्व में युधिष्ठिर-सर्प संवाद विषयक एक सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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