त्रयोदशाधिकशततम (113) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रयोदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद
इधर प्रचण्ड कोपधारी महात्मा विभाण्डक फल-मूल लेकर अपने आश्रम में आये। वहाँ बहुत खोज करने पर भी जब अपना पुत्र उन्हें दिखायी न दिया, तब वे अत्यन्त क्रोध में भर गये। कोप से उनका हृदय विदीर्ण-सा होने लगा। उनके मन में यह संदेह हुआ कि कहीं राजा लोमपाद की तो यह करतूत नहीं है। तब वे चम्पानगरी की ओर चल दिये, मानो अंगराज को उनके राष्ट्र और नगर सहित जला देना चाहते हों। थककर भूख से पीड़ित होने पर विभाण्डक मुनि सायंकाल में उन्हीं समृद्धिशाली गोष्ठों में गये। गोपगणों ने उनकी विधिपूर्वक पूजा की। वे राजा की भाँति सुख-सुविधा के साथ वहीं रातभर रहे। गोपगणों से अत्यनत सत्कार पाकर मुनि ने पूछा- ‘तुम किसके गोपालक हो?' तब उन सबने निकट आकर कहा- ‘यह सारा धन आपके पुत्र का ही है’। देश-देश में सम्मानित हो वे ही मधुर वचन सुनते-सुनते मुनि का रजोगुणजनित अत्यधिक क्रोध बिल्कुल शान्त हो गया। वे प्रसन्नतापूर्वक राजधानी में जाकर अंगराज से मिले। नरश्रेष्ठ लोमपाद से पूजित हो मुनि ने अपने पुत्र को उसी प्रकार ऐश्वर्य सम्पन्न देखा, जैसे देवराज इन्द्र स्वर्गलोक में देखे जाते हैं। पुत्र के पास ही उन्होंने बहू शान्ता को भी देखा, जो विद्युत के समान उद्भासित हो रही थी। अपने पुत्र के अधिकार में आये हुए ग्राम, घोष और बहू शान्ता को देखकर उनका महान कोप शान्त हो गया। युधिष्ठिर! उस समय विभाण्डक मुनि ने राजा लोमपाद पर बड़ी कृपा की। सूर्य और अग्नि के समान प्रभावशाली महर्षि ने अपने पुत्र को वहाँ छोड़ दिया और कहा- ‘बेटा! पुत्र उत्पन्न हो जाने पर इन अंगराज के सारे प्रिय कार्य सिद्ध करके फिर वन में ही आ जाना।' ऋष्यशृंग ने पिता की आज्ञा का अक्षरश: पालन किया। अन्त में पुन: उसी आश्रम में चले गये, जहाँ उनके पिता रहते थे। नरेन्द्र! शान्ता उसी प्रकार अनुकूल रहकर उनकी सेवा करती थी, जैसे आकाश में रोहिणी चन्द्रमा की सेवा करती है अथवा जैसे सौभग्यशालिनी अरुन्धती वसिष्ठ जी की, लोपामुद्रा अगस्त्य जी की, दमयन्ती नल की तथा शची वज्रधारी इन्द्र की सेवा करती हैं। युधिष्ठिर! जैसे नारायणी इन्द्रसेना सदा महर्षि मुद्गल के अधीन रहती थी तथा पाण्डुनन्दन! जैसे सीता महात्मा दशरथनन्दन श्रीराम के अधीन रही हैं और द्रौपदी सदा तुम्हारे वश में रहती आयी है, उसी प्रकार शान्ता भी सदा अधीन रहकर वनवासी ऋष्यशृंग की प्रसन्नतापूर्वक सेवा करती थी। उनका यह पुण्यमय आश्रम, जो पवित्र कीर्ति से युक्त है, इस महान कुण्ड की शोभा बढ़ाता हुआ प्रकाशित हो रहा है। राजन! यहाँ स्नान करके शुद्ध एवं कृतकृत्य होकर अन्य तीथों की यात्रा करो। इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में ऋष्यशृंगोपाख्यान विषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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