पंचाषष्टितम (65) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: पंचाषष्टितम अध्याय: श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद
महाराज! आप सुहृदों के मना करने पर भी जो ध्यान नहीं देते हैं, इससे अब स्वयं ही पुत्रों और सुहृदों सहित अपनी अनीति का फल भोगिये। विदुर, भीष्म तथा महात्मा द्रोण ने और मैंने भी बारंबार आपको मना किया है; किंतु आप कभी समझ नहीं पाते थे। जैसे मरणासन्न मनुष्य हितकारी औषध को भी फैंक देते हैं, उसी प्रकार आपने हम लोगों के कहे हुए लाभकारी और हितकर वचनों को भी ठुकरा दिया। एवं अब अपने पुत्रों की बात में आकर यह मान रहे हैं कि हमने पाण्डवों को जीत लिया। भरतश्रेष्ठ! आप पाण्डवों की विजय और अपनी पराजय-का जो कारण पूछते हैं, उसके विषय में यथार्थ बातें सुनिये। शत्रुदमन! मैंने जैसा सुन रखा है, वह आपको बताऊंगा। दुर्योधन ने यही बात पितामह भीष्म से पूछी थी। महाराज! युद्ध में अपने समस्त महारथी भाइयों को पराजित हुआ देख आपके पुत्र कुरुराज दुर्योधन का हृदय शोक से मोहित हो गया। उसने रात में महाज्ञानी पितामह भीष्म के पास विनयपूर्वक जाकर जो कुछ पूछा था, वह बताता हूं, मुझसे सुनिये। दुर्योधन ने पूछा- 'पितामह! आप, द्रोणाचार्य, शल्य, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, हृदिकपुत्र कृतवर्मा, कम्बोज-राज सुदक्षिण, भूरिश्रवा, विकर्ण तथा पराक्रमी भगदत्त-ये सब महारथी कहे जाते हैं। सभी कुलीन और युद्ध में मेरे लिये अपना शरीर निछावर करने को तैयार हैं। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि आप सब लोग मिल जायं तो तीनों लोकों पर भी विजय पाने में समर्थ हो सकते हैं, परंतु पाण्डवों के पराक्रम के सामने आप सब लोग टिक नहीं पाते हैं। इसका क्या कारण है? इस विषय में मुझे बड़ा भारी संदेह है; अत: मेरे प्रश्न के अनुसार आप उसका उत्तर दीजिये। किसका आश्रय लेकर ये कुंती के पुत्र क्षण-क्षण में हम लोगों पर विजय पा रहे हैं।' भीष्म जी ने कहा- 'कुरुनंदन! नरेश्वर! मेरी बात सुनो। इस विषय में जो यथार्थ बात है, उसे बताता हूँ। मैंने अनेक बार पहले भी तुमसे ये बातें कहीं है, परंतु तुमने उन्हें माना नहीं है। भरतश्रेष्ठ! तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। प्रभो! इसी में मैं तुम्हारा और भूमण्डल का कल्याण समझता हूँ। राजन्! तुम अपने सभी शत्रुओं को संताप और बंधु-बांधवों को आनन्द प्रदान करते हुए भाइयों के साथ मिलकर सुखी रहो और इस पृथ्वी का राज्य भोगो।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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