महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 58 श्लोक 22-46

अष्टपंचाशत्तम (58) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: अष्टपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 22-46 का हिन्दी अनुवाद


महामना भीष्म और द्रोण के रोकने पर भी उनके सामने ही वह सेना भागती ही चली जा रही थी। उधर सहस्रों रथी जब इधर-उधर भाग रहे थे, उसी समय एक रथ पर बैठे हुए अभिमन्यु और सात्यकि सुबलपुत्र की सेना का संग्राम भूमि में सब ओर से संहार करने लगे। उस अवसर पर (एक रथ में बैठे हुए) सात्यकि और अभिमन्यु उसी प्रकार शोभा पा रहे थे, जैसे अमावस्या तिथि को आकाश में सूर्य और चन्द्रमा एक ही स्थान में सुशोभित होते हैं। प्रजानाथ! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए अर्जुन आपकी सेना पर उसी प्रकार बाणों की वर्षा करने लगे, जैसे बादल पानी की धारा बरसाता है। तब पार्थ के बाणों से संग्राम-भूमि में पीड़ित हुई कौरव-सेना विषाद और भय से कांपती हुई इधर-उधर भाग चली। उन योद्धाओं को भागते देख दुर्योधन का हित चाहने वाले महारथी भीष्म और द्रोण क्रोधपूर्वक उन्हें रोकने लगे।

प्रजानाथ! इसी बीच में राजा दुर्योधन की मूर्छा दूर हो गयी और उसने आश्वस्त होकर चारों ओर भागती हुई सेना को पुनः लौटाया। भारत! आपका पुत्र दुर्योधन जहाँ-तहाँ जिस-जिसकी ओर दृष्टिपात करता, वहीं-वहीं से ऐसे योद्धा भी लौट आते थे जो क्षत्रियों में महारथी थे। राजन! उन सबको लौटते देख दूसरे लोग भी एक दूसरे की स्पर्धा तथा लज्जा के कारण ठहर गये। महाराज! पुनः लौटते हुए उन योद्धाओं का महान वेग चन्द्रोदय के समय बढ़ते हुए महासागर के समान जान पड़ता था।

राजन! अपनी सेना को लौटा हुआ देख राजा दुर्योधन तुरंत ही शान्तनुनन्दन भीष्म के पास जाकर बोला- ‘पितामह भरतनन्दन! मैं आपसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनिये। कुरुनन्दन! आपके, अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य के और महाधनुर्धर कृपाचार्य के पुत्रों और सुहृदोंसहित जीते-जी जो मेरी सेना भाग रही है, इसे मैं आप लोगों के योग्य नहीं मानता हूँ। मैं किसी तरह यह नहीं मान सकता कि पाण्डव संग्राम में आपके, द्रोणाचार्य के, कृपाचार्य के और अश्वत्थामा के समान बलवान हैं। वीर पितामह! निश्चय ही पाण्डव आपके कृपापात्र हैं, तभी तो मेरी सेना का वध हो रहा है और आप चुपचाप इसकी दुर्दशा को सहते चले जा रहे हैं। महाराज! यदि पाण्डवों पर दया ही करनी थी तो आप युद्ध आरम्भ होने के पहले ही मुझे यह बता देते कि मैं संग्राम भूमि में पाण्डुपुत्रों से, धृष्टद्युम्न से और सात्यकि से भी युद्ध नहीं करूँगा। उस अवस्था में आपका, आचार्य का तथा कृपाचार्य का वचन सुनकर मैं कर्ण के साथ उसी समय अपने कर्तव्य का निश्चय कर लेता। यदि युद्ध में आप दोनों को मेरा परित्याग करना उचित नहीं जान पड़ता हो तो द्रोणाचार्य और आप दोनों श्रेष्ठ पुरुष अपने योग्य पराक्रम प्रकट करते हुए युद्ध कीजिये'।

यह सुनकर भीष्म बारम्‍बार हंसकर क्रोध से आँखें तरेरते हुए आपके पुत्र से बोले- 'राजन! मैंने तुमसे अनेक बार यह सत्य और हित की बात बतायी है कि युद्ध में पाण्डवों को इन्द्र आदि देवता भी जीत नहीं सकते। नृपश्रेष्ठ! तो भी मुझ वृद्ध के द्वारा जो कुछ किया जा सकता है, उसे आज यथा शक्ति करुँगा। तुम इस समय अपने भाइयों सहित देखो। आज मैं अकेला ही सबके देखते-देखते सेना और बंधुओं सहित समस्त पांडवों को आगे बढ़ने से रोक दुँगा'। जनेश्वर! भीष्म के ऐसा कहने पर आपके पुत्र जोर-जोर से शंख बजाने और डंका पीटने लगे। राजन! उनका वह महान शंखनाद सुनकर पांडव वीर शंख बजाने तथा नगारे और ढोल पीटने लगे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अंतर्गत भीष्मवध पर्व के तृतीय युद्धदिवस में भीष्म और दुर्योधन संवादविषयक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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