महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 35-40

पञ्चत्रिंश (35) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 35-40 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 11

संजय बोले- केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर कांपता हुआ[1] नमस्‍कार करके, फिर भी अत्‍यंत भयभीत होकर प्रणाम करके[2] भगवान श्रीकृष्‍ण के प्रति गद्गद वाणी से बोला[3] संबंध- अब छत्‍तीसवें से छियालीसवें श्‍लोक तक अर्जुन भगवान के स्‍तवन, नमस्‍कार और क्षमायाचना सहित प्रार्थना करते हैं- अर्जुन बोले- हे अन्‍तर्यामिन! यह योग्‍य ही है कि आपके नाम, गुण और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित हो रहा है और अनुराग को भी प्राप्‍त हो रहा है तथा भयभीत राक्षस लोग दिशाओं में भाग रहे हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्‍कार कर रहे हैं।[4]

हे महात्‍मन! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिये वे कैसे नमस्‍कार न करें; क्‍योंकि हे अनंत! हे देवेश! हे जगन्निवास![5] जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानंदघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं।[6] आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इस जगत के परम आश्रय और जानने वाले[7] तथा जानने योग्‍य[8] और परमधाम[9]हैं। हे अनंतरूप![10] आपसे यह सब जगत व्‍याप्‍त अर्थात परिपूर्ण है।[11] आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्‍द्रमा, प्रजा के स्‍वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिये हजारों बार नमस्‍कार! नमस्‍कार हो!! आपके लिए फिर भी बार-बार नमस्कार! नमस्कार। हे अनन्‍त सामर्थ्‍य वाले! आपके लिये आगे से और पीछे से भी नमस्‍कार! हे सर्वात्मन्! आपके लिये सब ओर से ही नमस्‍कार हो;[12] क्‍योंकि अनंत पराक्रमशाली आप सब संसार को व्‍याप्‍त किये हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं।[13] संबंध- इस प्रकार भगवान की स्‍तुति और प्रणाम करके अब भगवान के गुण, रहस्‍य और माहात्‍म्‍य को यथार्थ न जानने के कारण वाणी और क्रिया द्वारा किये गये अपराधों को क्षमा करने के लिये भगवान से अर्जुन प्रार्थना करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि श्रीकृष्‍ण ने उस घोर रूप को देखकर अर्जुन इतने व्‍याकुल हो गये कि भगवान के इस प्रकार आश्वासन देने पर भी उनका डर दूर नहीं हुआ; इसलिये वे डर के मारे कांपते हुए ही भगवान से उस रूप का संवरण करने के लिये प्रार्थना करने लगे।
  2. इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि भगवान ने अनन्‍त ऐश्वर्यमय स्‍वरूप को देखकर उस स्‍वरूप के प्रति अर्जुन की बड़ी सम्‍मान्‍य दृष्टि हो गयी थी और वे डरे हुए थे ही। इसी से वे हाथ जोडे़ हुए बार-बार भगवान को नमस्‍कार और प्रणाम करते हुए उनकी स्‍तुति करने लगे।
  3. इसका अभिप्राय यह है कि अर्जुन जब भगवान की स्‍तुति करने लगे, तब आश्चर्य और भय के कारण उनका हृदय पानी-पानी हो गया, नेत्रों में जल भर गया, कण्‍ठ रुक गया और इसी कारण उनकी वाणी गद्गद हो गयी। फलत: उनका उच्‍चारण अस्‍पष्‍ट और करुणापूर्ण हो गया।
  4. भगवान के द्वारा प्रदान की हुई दिव्‍य दृष्टि से केवल अर्जुन ही यह सब देख रहे थे, सारा जगत नहीं। जगत का हर्षित और अनुरक्‍त होना, राक्षसों का डरकर भागना और सिद्धों का नमस्‍कार करना- ये सब उस विराट रूप के ही अंग है। अभिप्राय यह है कि यह वर्णन अर्जुन को दिखलायी देने वाले विराट रूप का ही है, बाहरी जगत का नहीं। उनको भगवान का जो विराट रूप दिखता था, उसी के अंदर ये सब दृश्‍य दिखलायी पड़ रहे थे। इसी से अर्जुन ने ऐसा कहा है।
  5. यहाँ ‘महात्‍मन, ‘अनन्‍त’, ‘देवेश’ और ‘जगन्निवास’- इन चार संबोधनों का प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव व्‍यक्‍त किया है कि आप समस्‍त चराचर प्राणियों के महान आत्‍मा हैं, अंतरहित हैं- आपके रूप, गुण और प्रभाव आदि की सीमा नहीं है; आप देवताओं के भी स्‍वामी हैं और समस्‍त जगत के एकमात्र परमाधार हैं। यह सारा जगत आप में ही स्थित है तथा आप इसमें व्‍याप्‍त हैं। अतएव इन सबका आपको नमस्‍कार आदि करना सब प्रकार से उचित ही है।
  6. जिसका कभी अभाव नहीं होता, उस अविनाशी आत्‍मा को ‘सत्’ और नाशवान अनित्‍य वस्‍तु मात्र को ‘असत्’ कहते हैं; इन्‍हीं को गीता के सातवें अध्‍याय में परा और अपरा प्रकृत्ति तथा पंद्रहवें अध्‍याय में अक्षर और क्षर पुरुष कहा गया है। इनसे परे परम अक्षर सच्चिदानंदघन परमात्‍मतत्त्‍व है। अर्जुन अपने नमस्‍कारादि के औचित्‍य को सिद्ध करते हुए कह रहे हैं कि यह सब आपका ही स्‍वरूप है। अतएव आपको नमस्‍कार आदि करना सब प्रकार से उचित है।
  7. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप इस भूत, वर्तमान और भविष्‍य समस्‍त जगत को यथार्थ तथा पूर्णरूप से जानने वाले, सबके नित्‍य द्रष्‍टा हैं; इसलिये आप सर्वज्ञ हैं, आपके सदृश सर्वज्ञ कोई नहीं है (गीता 7:26)
  8. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जो जानने के योग्‍य है, जिसको जानना मनुष्य जन्‍म का उद्देश्‍य है, गीता के तेरहवें अध्‍याय में बारहवें से सतरहवें श्लोक तक जिस ज्ञेय तत्त्व का वर्णन किया गया है- वे साक्षात परब्रह्म परमेश्वर आप ही हैं।
  9. इससे अर्जुन ने यह बतलाया है कि जो मुक्त पुरुषों की परम गति है, जिसे प्राप्‍त होकर मनुष्‍य वापस नहीं लौटता; वह साक्षात परम धाम आप ही हैं (गीता 8:21)।
  10. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपके रूप असीम और अगणित हैं, उनका पार कोई पा ही नहीं सकता।
  11. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि सारे विश्व के प्रत्‍येक परमाणु में आप व्‍याप्‍त हैं, इसका कोई भी स्‍थान आप से रहित नहीं है।
  12. ’सर्वे’ नाम से सम्‍बोधित करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप सबके आत्‍मा, सर्वव्‍यापी और सर्वरूप हैं; इसलिये मैं आपको आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, दाहिने-बायें- सभी ओर से नमस्‍कार करता हूँ।
  13. अर्जुन इस कथन से भगवान की सर्वता को सिद्ध करते हैं। अभिप्राय यह है कि आपने इस सम्‍पूर्ण जगत को व्‍याप्‍त कर रखा है। विश्व में क्षुद्र से भी क्षुद्रतम अणुमात्र भी ऐसी कोई जगह या वस्‍तु नहीं है, जहाँ और जिसमें आप न हों। अतएव सब कुछ आप ही हैं। वास्‍तव में आपसे पृथक जगत कोई वस्‍‍तु ही नहीं है, यही मेरा निश्चय है।

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