महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 29 श्लोक 27-29

एकोनत्रिश (29) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनत्रिश अध्याय: श्लोक 27-29 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 5

बाहर के विषयभोगों को न चिन्तन करना हुआ बाहर ही निकालकर[1] और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके[2] तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके,[3] जिसकी इन्द्रियां, मन और बुद्धि जीती हुई हैं[4]- ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि[5] इच्‍छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्‍त ही है।[6]

संबंध- जो मनुष्‍य इस प्रकार मन, इन्द्रियों पर विजय प्राप्‍त करके कर्मयोग, सांख्‍ययोग या ध्‍यानयोग का साध न करने में अपने को समर्थ नहीं समझता हो, ऐसे साधक के लिये सुगमता से परमपद की प्राप्ति कराने वाले भक्तियोग का संक्षेप में वर्णन करते हैं- मेरा भक्‍त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला,[7] सम्‍पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर[8] तथा सम्‍पूर्ण भूतप्राणियों का सुहृद्[9] अर्थात् स्‍वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्‍व से जानकर शांति को प्राप्‍त होता है।[10]


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के श्रीमद्भगवद्गतापर्व के अंतर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्‍त्र रूप श्रीमद्भगवतद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्‍णार्जुन संवाद में कर्मसंन्यासयोग नामक पांचवा अध्‍याय पूरा हुआ ॥5॥ भीष्‍मपर्व में उन्‍तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विवेक और वैराग्‍य के बल से सम्‍पूर्ण बाह्यविषयों को क्षणभंगुर, अनित्‍य, दु:खमय और दु:खों के कारण समझकर उनके संस्‍कार रूप समस्‍त चित्रों के अंत:करण से निकाल देना-उनकी स्‍मृति को सर्वथा नष्‍ट कर देना ही बाहर के विषयों को बाहर निकाल देना है।
  2. नेत्रों के द्वारा चारों ओर देखते रहने से तो ध्‍यान में स्‍वाभाविक ही विघ्न-विक्षेप होता है उन्‍हें बंद कर लेने से आलस्‍य और निद्रा के वश हो जाने का भय है। इसीलिये नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थिर करने को कहा गया है।
  3. प्राण और अपान की स्‍वाभाविक गति विषम है। कभी तो वे वाम नासिका में विचरते हैं और कभी दक्षिण नासिका में। वाम में चलने में इडानाडी में चलना और दक्षिण में चलने को पिंगला में चलना कहते हैं। ऐसी अवस्‍था में मनुष्‍य का चित्त चञ्चल रहता है। इस प्रकार विषमभाव से विचरने वाले प्राण और अपान की गति को दोनों नासिकाओं में समानभाव से कर देना उनको सम करना है। यही उनका सुषुम्णा में चलना है। सुषुम्‍णा नाडी पर चलते समय प्राण और अपान की गति बहुत ही सूक्ष्‍म और शांत रहती है। तब मन की चञ्चलता और अशांति अपने-आप ही नष्‍ट हो जाती है और वह सहज ही परमात्‍मा के ध्‍यान में लग जाता है।
  4. इन्द्रियां चाहे जब, चाहे जिस विषय में स्‍वच्‍छंद चली जाती हैं, मन सदा चंचल रहता है और अपनी आदत को छोड़ना ही नहीं चाहता, एवं बुद्धि एक परम निश्चय अटल नहीं रहती-यही इनका स्‍वतंत्र या उच्‍छृंखल हो जाना है। विवेक और वैराग्‍यपूर्वक अभ्‍यास द्वारा इन्‍हें सुश्रृंखल, आज्ञाकारी और अंतर्मुखी या भगवन्निष्‍ठ बना लेना ही इनको जीतना है।
  5. ’मुनि’ मननशील को कहते हैं, जो पुरुष ध्‍यान-काल की भाँति व्‍यवहार काल में भी परमात्‍मा की सर्वव्‍यापकता का दृढ़ निश्चय होने के कारण सदा परमात्‍मा का ही मन करता रहता है, वही ‘मुनि’ है।
  6. जो महापुरुष उपर्युक्‍त साधनों द्वारा इच्‍छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह ध्‍यान काल में या व्‍यवहार काल में, शरीर रहते या शरीर छूट जाने पर, सभी अवस्‍थाओं में सदा मुक्‍त ही है-संसारबंधन से सदा के लिये सर्वथा छूटकर परमात्‍मा को प्राप्‍त हो चुका है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
  7. अंहिसा, सत्‍य आदि धर्मों का पालन, देवता, ब्राह्मण, माता-पिता आदि गुरुजनों का सेवन-पूजन, दीन-दुखी, गरीब और पीड़ित जीवों की स्‍नेह और आदरयुक्‍त सेवा और उनके दु:खनाश के लिये जाने वाले उपर्युक्‍त साधन एवं यज्ञ, दान आदि जितने भी शुभ कर्म हैं, सभी का समावेश ‘यज्ञ’ और ‘तप’ शब्‍दों में समझना चाहिये। भगवान् सब के आत्‍मा हैं (गीता 10।20), अतएव देवता, ब्राह्मण, दीन-दुखी आदि के रूप में स्थित होकर भगवान् ही समस्‍त सेवा-पूजादि ग्रहण कर रहे हैं। इसलिये वे ही समस्‍त यज्ञ और तपों के भोक्ता हैं। (गीता 9।24) इस प्रकार समझना ही भगवान् को ‘यज्ञ और तपों का भोगने वाला’ समझना है।
  8. इन्द्र, वरुण, कुबेर, यमराज आदि जितने भी लोकपाल हैं तथा विभिन्‍न ब्रह्माण्‍डों में अपने-अपने ब्रह्मण्‍ड का नियन्‍त्रण करने वाले जितने भी ईश्वर हैं, भगवान् उन सभी के स्‍वामी और महान् ईश्वर हैं। इसी से श्रुति में कहा है- ‘तमीश्‍वराणं परमं महेश्वरम्’ ‘उन ईश्वरों के भी परम महेश्वर को’ (श्‍वेताश्वतर उप. 6।7)। अपनी अनिर्वचनीय माया-शक्ति द्वारा भगवान अपनी लीला से ही सम्‍पूर्ण अनंतकोटि ब्रह्माण्‍डों की उत्‍पत्ति, स्थिति और संहार करते हुए सबको यथायोग्‍य नियन्‍त्रण में रखते हैं और ऐसा करते हुए भी वे सबसे ऊपर ही रहते है। इस प्रकार भगवान् को सर्वशक्तिमान, सर्वनियंता, सर्वाध्‍याक्ष और सर्वेश्वरेश्‍वर समझना ही उन्‍हें ‘सर्वलोकमहेश्‍वर’ समझना है।
  9. भगवान् स्‍वाभाविक ही सब पर अनुग्रह करके सबके हित की व्‍यवस्‍था करते हैं और बार-बार अवतीर्ण होकर नाना प्रकार के ऐसे विचित्र चरित्र करते हैं, जिन्‍हें गा-गाकर ही लोग तर जाते हैं। उनकी प्रत्‍येक क्रिया में जगत् का हित भरा रहता है। भगवान् जिनको मारते या दण्‍ड देते हैं, उन पर भी दया ही करते हैं, उनका कोई भी विधान दया और प्रेम से रहित ही होता। इसीलिये भगवान् सब भूतों के सुहृद् हैं।
  10. जो पुरुष इस बात को जान लेता है और विश्‍वास कर लेता है कि ‘भगवान् मेरे अहैतुम प्रेमी हैं, वे जो कुछ भी करते हैं, मेरे मंगल के लिये ही करते हैं’, वह प्रत्‍येक अवस्‍था में जो कुछ भी होता है, उसको दयामय परमेश्‍वर का प्रेम और दया से ओतप्रोत मंगलविधान समझकर सदा ही प्रसन्‍न रहता है। इसलिये उसे अटल शांति मिल जाती है। उसकी शांति में किसी प्रकर की बाधा उपस्थित होने का कोई कारण ही नहीं रह जाता।

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