महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 29 श्लोक 23-26

एकोनत्रिश (29) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनत्रिश अध्याय: श्लोक 23-26 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 5

जो साधक इस मनुष्‍य शरीर में शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही[1] काम-क्रोध से उत्‍पन्‍न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है,[2] वही पुरुष योगी है और वही सुखी है। संबंध-उपर्युक्‍त प्रकार से ब्रह्म विषयभोगों को क्षणिक और दु:खों का कारण समझकर तथा आसक्ति का त्‍याग करके जो काम-क्रोध पर विजय प्राप्‍त कर चुका है, अब ऐसे सांख्‍ययोगी की अंतिम स्थिति का फलसहित वर्णन किया जाता है-

जो पुरुष अंतरात्‍मा में ही सुख वाला है,[3] आत्‍मा में ही रमण करने वाला है[4] तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है,[5] वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्‍ययोगी[6] शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है।[7]

जिनके सब पाप नष्‍ट हो गये हैं,[8] जिनके सब संशय ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्त वाले, पर‍ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किये हुए ज्ञानी पुरुषों के लिये सब ओर से शान्त परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण हैं।[9] सम्बन्ध- कर्मयोग और सांख्‍ययोग- दोनों साधनों द्वारा परमात्मा की प्राप्ति और परमात्मा को प्राप्त महापुरुषों के लक्षण कहे गये। उक्त दोनों ही प्रकार के साधकों के लिये वैराग्यपूर्वक मन-इन्द्रियों को वश में करके ध्‍यानयोग का साधन करना उपयोगी है, अत: अब संक्षेप में फलसहित ध्‍यानयोग का वर्णन करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इससे यह बतलाया गया है कि शरीर नाशवान् है- इसका वियोग होना निश्चित है और यह भी पता नहीं कि यह किस क्षण में नष्‍ट हो जायगा; इसलिये मृत्युकाल उपस्थित होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये।
  2. (पुरुष के लिये) स्त्री, (स्त्री के लिये) पुरुष, (दोनों ही के लिये) पुत्र, धन, मकान या स्वार्गादि जो कुछ भी देखे-सुने हुए मन और इन्द्रियों के विषय हैं, उनमें आसक्ति हो जाने के कारण उनको प्राप्त करने की जो इच्छा होती है, उसका नाम ‘काम’ है और उसके कारण अन्त:करण में होने वाले नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों का जो प्रवाह है, वह काम से उत्पन्न होने वाला ‘वेग’ है। इसी प्रकार मन, बुद्धि और इन्द्रियों के प्रतिकुल विषयों की प्राप्ति होने पर अथवा इष्‍ट-प्राप्ति की इच्छापूर्ति में बाधा उपस्थि‍त होने पर उस स्थिति के कारणभूत पदार्थ या जीवों के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न होकर अन्त:करण में जो ‘उत्तेजना’ का भाव आता है, उसका नाम ‘क्रोध’ है और उस क्रोध के कारण होने वाले नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों का जो प्रवाह है, वह क्रोध से उत्पन्न होने वाला ‘वेग’ है। इन वेगों को शान्तिपूर्वक सहन करने की अर्थात् इन्हें कार्यान्वित न होने देने की शक्ति प्राप्त कर लेना ही इनको सहन करने में समर्थ होना है।
  3. यहाँ ‘अन्त:’ शब्द सम्पूर्ण जगत् के अन्त:स्थि‍त परमात्मा का वाचक है, अन्त:करण का नहीं। इसका यह अभिप्राय है कि जो पुरुष बाह्य विषयभोगरूप सांसारिक सुखों को स्वप्न की भाँति अनित्य समझ लेने के कारण उनको सुख नहीं मानता, किंतु इन सबके अन्त:स्थित परम आनन्दस्वरूप परमात्मा में ही ‘सुख’ मानता है, वही ‘अन्त:सुख’ अर्थात् अन्तरात्मा में ही सुख वाला है।
  4. जो बाह्य विषय-भोगों में सत्ता और सुख-‍बुद्धि न रहने के कारण उनमें रमण नहीं करता, इन सबमें आसक्तिरहित होकर केवल परमात्मा में ही रमण करता है अर्थात् परमानन्दस्वरूप परमात्मा का ही निरन्तर अभिन्नभाव से चिन्तन करता रहता है, वह ‘अन्तराराम’ अर्थात् आत्मा में ही रमण करने वाला कहलाता है।
  5. परमात्मा समस्त ज्योतियों की भी परम ज्योति है। (गीता 13।17) सम्पूर्ण जगत् उसी के प्रकाश से प्रकाशित है। जो पुरुष निरन्तर अभिन्नभाव से ऐसे परम ज्ञानस्वरूप परमात्मा का अनुभव करता हुआ उसी में स्थित रहता है, जिसकी दृष्टि में एक विज्ञानानन्दस्वरूप परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी बाह्य दृ्श्‍य वस्तु की भिन्न सत्ता ही नहीं रही है, वही ‘अन्तज्योति’ अर्थात् आत्मा में ही ज्ञान वाला है।
  6. सांख्‍ययोग का साधन करने वाला योगी अहंकार, ममता और काम-क्रोधादि समस्त अवगुणों का त्याग करके निरन्तर अभिन्नभाव से परमात्मा का चिन्तन करते-करते जब ब्रह्मरूप हो जाता है- उसका ब्रह्म के साथ किञ्चिन्मात्र भी भेद नहीं रहता, तब इस प्रकार की अन्तिम स्थिति को प्राप्त सांख्‍ययोगी ‘ब्रह्मरूप’ अर्थात् सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त कहलाता है।
  7. ‘शान्त ब्रह्म (ब्रह्मनिर्वाण)’ सच्चिदानन्दघन, निर्गुण, निराकार, निर्विकल्प एवं शान्त परमात्मा का वाचक है और अभिन्नभाव से प्रत्यक्ष हो जाना ही उसकी प्राप्ति है। सांख्‍ययोगी की जिस अन्तिम अवस्था का ‘ब्रह्मभूत’ शब्द से निर्देश किया गया है, यह उसी का फल है। श्रु‍ति में भी कहा है- ‘ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति’ (बृहदारण्‍यक उप. 4।4।6) अर्थात् ‘वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है।’ इसी को परम शान्ति की प्राप्ति, अक्षय सुख की प्राप्ति, ब्रह्मप्राप्ति, मोक्षप्राप्ति और परमगति की प्राप्ति कहते हैं।
  8. इस जन्‍म और जन्‍मांतर में किये हुए कर्मों के संस्‍कार, राग-द्वेषादि दोष तथ उनकी वृत्तियों के पुञ्ज, जो मनुष्‍य के अंत:करण में इकट्ठे रहते हैं, बंधन में हेतु होने के कारण सभी कल्‍मष-पाप हैं। परमात्‍मा का साक्षात्‍कार हो जाने पर इन सब का नाश हो जाता है। फिर उस पुरुष के अंत:करण में दोष का लेशमात्र भी नहीं रहता।
  9. परमात्मा को प्राप्‍त ज्ञानीमहापुरुषों के अनुभव में ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर, यहां-वहां, सर्वत्र नित्‍य-निरंतर एक विज्ञानानंदघन परब्रह्म परमात्‍मा ही विद्यमान हैं- एक अद्वितीय परमात्‍मा के सिवा अन्‍य किसी भी पदार्थ की सत्ता ही नहीं है, इसी अभिप्राय से कहा गया है कि उनके लिये सभी ओर से परमात्‍मा ही परिपूर्ण है।

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