महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 119 श्लोक 20-40

एकोनविंशत्यधिकशततम (119) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद


सात्यकि, भीमसेन, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, विराट, द्रुपद, राक्षस घटोत्कच और अभिमन्यु- ये सात वीर क्रोध से मूर्च्छित हो तुरंत ही विचित्र धनुष धारण किये वहाँ दौड़े आये। भरतभूषण! उनका वह भयंकर युद्ध देवासुर संग्राम के समान रोंगटे खड़े कर देने वाला था। भीष्‍म जी का धनुष कट गया था। उसी अवस्था में अर्जुन से सुरक्षित शिखण्डी ने दस बाणों से उनके सारथी को भी घायल कर दिया। तत्‍पश्‍चात एक बाण से ध्वज को काट गिराया। तब शत्रुवीरों का संहार करने वाले गंगानन्दन भीष्‍म ने दूसरा अत्यन्त वेगशाली धनुष लेकर तीखे बाणों से अर्जुन का घायल करना आरम्भ किया। यह देख अर्जुन ने उस धनुष को भी तीन पैने बाणों द्वारा काट डाला। इस प्रकार क्रोध में भरे हुए शत्रुसंतापी, सव्यसाची पाण्डुनन्दन अर्जुन जो-जो धनुष भीष्‍म लेते, उसी-उसी को काट डालते थे। धनुष कट जाने पर क्रोधपूर्वक अपने मुंह के दोनों कोनों को चाटते हुए भीष्‍म ने बलपूर्वक एक शक्ति हाथ में ली, जो पर्वतों को भी विदीर्ण करने वाली थी।

भरतश्रेष्ठ! फिर उसे क्रोधपूर्वक उन्होंने अर्जुन के रथ की ओर चला दिया। प्रज्वलित व्रज के समान उस शक्ति को आती देख पाण्डवों को आनन्दित करने वाले अर्जुन ने अपने हाथ में भल्ल नामक पांच तीखे बाण लिये और कुपित हो उन पांच बाणों द्वारा भीष्म की भुजाओं से प्रेरित हुई उस शक्ति के पांच टुकड़े कर दिये क्रोध में भरे हुए अर्जुन द्वारा काटी हुई वह शक्ति मेघों के समूह से निर्मुक्त होकर गिरी हुई बिजली के समान पृथ्वी पर गिर पड़ी। अपनी उस शक्ति को छिन्न-भिन्न देख भीष्म जी क्रोध में निमग्न हो गये और शत्रुनगर विजयी उन वीर शिरोमणि रण क्षेत्र में अपनी बुद्धि के द्वारा इस प्रकार विचार किया- ‘यदि महाबली भगवान श्रीकृष्ण उन पाण्डवों की रक्षा न करते तो मैं इन सबको केवल एक धनुष के ही द्वारा मार सकता था। भगवान सम्पूर्ण लोकों के लिये अजेय हैं। ऐसा मेरा विश्‍वास है। इस समय मैं दो कारणों का आश्रय लेकर पाण्डवों से युद्ध नहीं करूंगा। एक तो ये पाण्‍डु की संतान होने के कारण मेरे लिये अबध्य हैं और दूसरे मेरे सामने शिखण्डी आ गया है, जो पहले स्त्री था। पूर्वकाल में जब मैंने माता सत्यवती का विवाह पिताजी के साथ कराया था, उस समय मेरे पिता ने संतुष्ट होकर मुझे दो वर दिये थे। जब तुम्हारी इच्छा होगी, तभी तुम मरोगे तथा युद्ध में कोई भी तुम्हें मार न सकेगा। ऐसी दशा में मुझे स्वेच्छा से ही मृत्यु स्वीकार कर लेनी चाहिए। मैं समझता हूँ कि अब उसका अवसर आ गया है।’

अमित तेजस्वी भीष्म के इस निश्‍चय को जानकर आकाश में खड़े हुए ऋषियों और वसुओं ने उनसे इस प्रकार कहा- ‘तात! तुमने जो निश्‍चय किया है, वह हम लोगों को भी बहुत प्रिय है। महाराज! अब तुम वही करो। युद्ध की ओर से अपनी चित्तवृति हटा लो।' यह बात समाप्त होते ही जल की बूंदों के साथ सुखद, शीतल, सुगन्धित एवं मन के अनुकूल वायु चलने लगी। आर्य! देवताओं की दुन्दुभियां जोर-जोर से बज उठीं। भीष्म के ऊपर फूलों की वर्षा होने लगी। राजन! उस समय उपर्युक्त बातें कहने वाले ऋषियों का शब्द महाबाहु भीष्म तथा मुझको छोड़कर और कोई नहीं सुन सका। मुझे तो महर्षि व्यास के प्रभाव से ही वह बात सुनायी पड़ी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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