महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 101 श्लोक 18-34

एकाधिकशततम (101) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: एकाधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद

सिन्‍धुराज जयद्रथ की खोज करते हुए महाबाहु श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ने उस समय जब आपस में उपर्युक्‍त बातें कहीं, तब आपके पुत्र बहुत कोलाहल करने लगे। जैसे मरुभूमि को लांघकर जाते हुए दो प्‍यासे हाथी पानी पीकर तृप्‍त एवं संतुष्‍ट हो गये हों, उसी प्रकार शत्रुओं का दमन करने वाले श्रीकृष्‍ण और अर्जुन भी शत्रुसेना को लांघकर अत्‍यन्त प्रसन्‍न हुए थे। जैसे व्‍याघ्र, सिंह और हाथियों से भरे हुए पर्वतों को लांघकर दो व्‍यापारी प्रसन्‍न दिखायी देते हों, उसी प्रकार मृत्यु और जरा से रहित श्रीकृष्‍ण और अर्जुन भी उस सेना को लांघकर संतुष्‍ट दीखते थे। इन दोनों मुख की कान्ति वैसी ही थी, ऐसा सभी सैनिक मान रहे थे। विपधर सर्प और प्रज्‍वलित अग्नि के समान भयंकर द्रोणाचार्य तथा अन्‍य नरेशों के हाथ से छुटे हुए दो प्रकाशमान सूर्यों के सदृश श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को वहाँ देखकर आप के समस्‍त सैनिक सब ओर से कोलाहल मचा रहे थे।

समुद्र के समान विशाल द्रोण सेना से मुक्‍त हुए वे दोनों शत्रुदमन वीर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ऐसे प्रसन्‍न दिखायी देते थे, मानो महासागर लांघ गये हों। द्रोणाचार्य और कृतवर्मा द्वारा सुरक्षित महान अस्त्र-समुदाय से छूटकर वे दोनों वीर समरागंण में इन्‍द्र और अग्नि के समान प्रकाशमान दिखायी देते थे। द्रोणाचार्य के तीखे बाणों से श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के शरीर छिदे हुए थे और उनसे रक्‍त की धारा बह रही थी। उस समय वे लाल कनेर से भरे हुए दो पर्वतों के समान सुशोभित होते थे। द्रोणाचार्य जिस सैन्‍य-सरोवर के ग्राहतुल्‍य जन्‍तु थे, जो शक्तिरुपी विषधर सर्पों से भरा था, लोहे के बाण जिसके भीतर जल के समान शोभा उत्‍पन्‍न करते थे, बडे-बड़े क्षत्रिय जिसमें जल के समान सुनायी पड़ती थी, गदा और खगड़ जहाँ विद्युत के समान चमक रहे थे और द्रोणाचार्य के बाण ही जहाँ मेघ बनकर बरस रहे थे, उससे मुक्‍त हुए श्रीकृष्‍ण और अर्जुन राहू से छूटे हुए सूर्य और चन्‍द्रमा के समान प्रकाशित हो रहे थे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो वर्षा ऋृतु में जल से लबालब भरी हुई बड़े-बड़े ग्राहों से व्‍याप्‍त समुद्र गामिनी इरावती (रावी), विपाशा (ब्‍यास), वितस्‍ता (झेलम), शतद्रू, (शतलज) ,(शतलज)और चन्‍द्रभागा (चुनाब) इन पांचों नदियों के साथ छठी सिंधु नदी को श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ने अपनी भुजाओं से तैरकर पार किया हो। इस प्रकार द्रोणाचार्य के अस्त्र-बल का निवारण करने के कारण समस्‍त प्राणी श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को लोकविख्‍यात प्रशस्‍त गुणयुक्‍त महाधनुर्धर मानने लगे। जैसे पानी पीने के घाट पर आये हुए रुरुमृग को दबोच लेने की इच्‍छा से दो व्‍याघ्र खडे़ हों, उसी प्रकार निकटवर्ती जयद्रथ को मार डालने की इच्‍छा से उसकी ओर देखते हुए वे दोनों वीर खडे़ थे।

महाराज! उस समय उन दोनों के मुख पर जैसी समुज्‍ज्वल कान्ति थी, उसके अनुसार आप के योद्धाओं ने जयद्रथ को मरा हुआ ही माना। एक साथ बैठे हुए लाल नेत्रों वाले महाबाहु श्रीकृष्‍ण और अर्जुन सिन्‍धुराज जयद्रथ को देखकर हर्ष से उल्‍लसित हो बारंबार गर्जना करने लगे। राजन! हाथों में बागडोर लिये श्रीकृष्‍ण और धनुष धारण किये अर्जुन-इन दोनों की प्रभा सूर्य और अग्नि के समान जान पड़ती थी। जैसे मांस का टुकड़ा देखकर दो बाजों को प्रसन्‍नता होती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य सेना से मुक्‍त हुए उन दोनों वीरों को अपने पास ही जयद्रथ को देखकर सब प्रकार से हर्ष ही हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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