चतु:षष्टितम (64) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: चतु:षष्टितम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद
राजन! उस सुवर्णभूषित परिघ को सहसा अपने ऊपर आते देख पाण्डुपुत्र अर्जुन ने हंसते हुए से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। नरेश्वर! जैसे वज्र का मारा हुआ पर्वत टूट-फूटकर सब ओर बिखर जाता है, उसी प्रकार अर्जुन के बाणों से कटा हुआ वह परिघ उस समय पृथ्वी पर गिर पड़ा। महाराज! तब महारथी द्रोणपुत्र ने कुपित होकर अर्जुन पर ऐंद्रास्त्र द्वारा वेगपूर्वक बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। राजन! अर्जुन ने अश्वत्थामा द्वारा किये हुए इन्द्रजाल का विस्तार देखकर बड़े वेग से गाण्डीव धनुष हाथ में लिया और महेन्द्र द्वारा निर्मित उत्तम अस्त्र का आश्रय लेकर उस इन्द्र जाल का संहार कर दिया। इस प्रकार इन्द्रास्त्र द्वारा छोड़े गये उस बाण-जाल को विदीर्ण करके अर्जुन ने निकटवर्ती होकर क्षणभर में अश्वत्थामा के रथ को ढक दिया। उस समय अश्वत्थामा अर्जुन के बाणों से अभिभूत हो गया था। तदनन्तर अश्वत्थामा ने अपने बाणों द्वारा अर्जुन की उस बाण-वर्षा का निवारण करके अपना नाम प्रकाशित करते हुए सहसा सौ बाणों से श्रीकृष्ण को घायल कर दिया और अर्जुन पर भी तीन सौ बाणों का प्रहार किया। इसके बाद अर्जुन ने सौ बाणों से गुरुपुत्र के मर्मस्थानों को विदीर्ण कर दिया तथा आपके पुत्रों के देखते-देखते उसके घोड़ों, सारथि, धनुष और प्रत्यंचा पर बाणों की झड़ी लगा दी। शत्रुवीरों का संहार करने वाले पाण्डुपुत्र अर्जुन ने अश्वत्थामा के मर्मस्थानों में चोट पहुँचाकर एक भल्ल से उसके सारथि को रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। तब उसने स्वयं ही घोड़ों की बागडोर हाथ में लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुन को बाणों से ढक दिया। वहाँ हमने द्रोण पुत्र का शीघ्र प्रकट होने वाला वह अभ्दुत पराक्रम देखा कि वह घोड़ों को भी काबू में रखता था और अर्जुन के साथ युद्ध भी करता था। राजन! समरांगण में भी सभी योद्धाओं ने उसके इस कार्य की पुरि-पुरि प्रशंसा की। तदनन्तर विजयी अर्जुन ने हंसकर युद्धस्थल में द्रोणपुत्र के घोड़ों की वागडोरों को क्षुरप्रों द्वारा शीघ्रता पूर्वक काट दिया। भारत! इसके बाद बाणों के वेग से अत्यन्त पीड़ित हुए उसके घोड़े वहाँ से भाग चले। उस समय वहाँ आपकी सेना में भयंकर कोलाहल मच गया। पाण्डव विजय पाकर आपकी सेना पर टूट पड़े और पुन: विजय की अभिलाषा ले चारों ओर से पैने बाणों का प्रहार करने लगे। महाराज! विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डवों ने दुर्योधन की विशाल सेना में बारंबार भगदड़ मचा दी। नरेश्वर! प्रजानाथ! विचित्र युद्ध करने वाले आपके पुत्रों के, सुबलपुत्र शकुनि के तथा कर्ण के देखते-देखते यह सब हो रहा था। जनेश्वर! सब ओर से पीड़ित हुई आपकी विशाल सेना आपके पुत्रों के बहुत रोकने पर भी युद्धभूमि में खड़ी न रह सकी। महाराज! सब ओर भागने वाले योद्धाओं के कारण आपके पुत्रों की वह विशाल सेना भयभीत और व्याकुल हो उठी। सूतपुत्र कर्ण ‘ठहरो, ठहरो, की पुकार करता ही रह गया; परंतु महामनस्वी पाण्डवों की मार खाती हुई वह सेना किसी तरह ठहर न सकी। महाराज! दुर्योधन की सेना को सब ओर भागती देख विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डव जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। उस समय दुर्योधन ने कर्ण से प्रेमपूर्वक कहा- ‘कर्ण! देखो, पांचालों ने मेरी इस विशाल सेना को अत्यन्त पीड़ित कर दिया है। ‘शत्रुदमन महाबाहु वीर! तुम्हारे रहते हुए भय के कारण मेरी सेना भाग रही है; यह जानकर इस समय जो कर्त्तव्य प्राप्त हो उसे करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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