महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 42 श्लोक 29-43

द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 29-43 का हिन्दी अनुवाद

ओ पापी! मूर्ख के समान तुमने पाण्डुपुत्र अर्जुन के लिये मेरा तिरस्कार करते हुए मेरे प्रति अप्रिय वचन सुनाये हैं। मेरे प्रति सरलता का व्यवहार करना तुम्हारे लिये उचित था; परंतु तुम्हारी बुद्धि में कुटिलता भरी हुई है, अतः तुम मित्रद्रोही होने के कारण अपने पाप से ही मारे गये। किसी के साथ सात पग चल देने मात्र से ही मैत्री सम्पन्न हो जाती है। (किंतु तुम्हारे मन में उस मैत्री का उदय नहीं हुआ।) यह बड़ा भयंकर समय आ रहा है। राजा दुर्योधन रणभूमि में आ पहुँचा है। मैं उसके मनोरथ की सिद्धि चाहता हूँ; किन्तु तुम्हारा मन उधर लगा हुआ है, जिससे उसके कार्य की सिद्धि होने की कोई सम्भावना नहीं है। मिद, नन्द, प्री, त्रा, मि अथवा मुद[1] धातुओं से निपातन द्वारा मित्र शब्द की सिद्धि होती है। मैं तमसे सत्य कहता हूँ- इन सभी धातुओं का पूरा-पूरा अर्थ मुझमें मौजूद है। राजा दुर्योधन इन सब बातों को अच्छी तरह जानते हैं। शद्, शास्, शो, श्रृ, श्वस् अथवा षद् तथा नाना प्रकार के उपसर्गों से युक्त सूद[2] धातु से भी शत्रु शब्द की सिद्धि होती है। मरे प्रति इस सभी धातुओं का सारा तात्पर्य तुममें संघटित होता है। अतः मैं दुर्योधन का हित, तुम्हारा प्रिय, अपने लिये यश और प्रसन्नता की प्राप्ति तथा परमेश्वर की प्रीति का सम्पादन करने के लिये पाण्डुपुत्र अर्जुन और श्रीकृष्ण के पास प्रयत्न पूर्वक युद्ध करूँगा।

आज मेरे इस कर्म को तुम देखो। आज मेरे उत्तम ब्रह्मास्त्र, दिव्यास्त्र और मानुपास्त्रों को देखो। मैं इनके द्वारा भयंकर पराक्रमी अर्जुन के साथ उसी प्रकार युद्ध करूँगा, जैसे कोई अत्यन्त मतवाला हाथी दूसरे मतवाले हाथी के साथ भिड़ जाता है। मैं युद्ध में अजेय तथा असीम शक्तिशाली ब्रह्मास्त्र का मन ही मन स्मरण करके अपनी विजय के लिए अर्जुन पर प्रहार करूँगा। यदि मेरे रथ का पहिया किसी विषम स्थान में न फँस जाय तो उस अस्त्र से अर्जुन रणभूमि में जीवित नहीं छूट सकते। कर्ण कहता है- शल्य! मैं दण्डधारी सूर्यपुत्र यमराज से, पाशधारी वरुण से? गदा हाथ में लिये हुए कुबेर से, वज्रधारी इन्द्र से अथवा दूसरे किसी आततायी शत्रु से भी कभी नहीं डरता। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। इसीलिए मुझे अर्जुन और श्रीकृष्ण से भी कोई भय नहीं है। उन दोनों के साथ रणक्षेत्र में मेरा युद्ध अवश्य होगा। नरेश्वर! एक समय की बात है, मैं शस्त्रों के अभ्यास के लिये विजय नामक एक ब्राह्मण के आश्रम के आस पास विचरण कर रहा था। उस समय घोर एवं भयंकर बाण चलाते हुए मैंने अनजाने में ही असावधानी के कारण उस ब्राह्मण की होमधेनु के बछड़े को एक बाण से मार डाला। शल्य! तब उस ब्राह्मण ने एकान्त में घूमते हुए मुझसे आकर कहा- 'तुमने प्रमादवश मेरी होमधेनु के बछड़े को मार डाला है। इसलिए तुम जिस समय रणक्षेत्र में युद्ध करते-करते अत्यन्त भय को प्राप्त होओ, उसी समय तुम्हारे रथ का पहिया गड्ढे में गिर जाय। ब्राह्मण शल्य! मैं ब्राह्मण को एक हजार गौएँ और छः सौ बैल दे रहा था; परंतु उससे उसका कृपाप्रसाद न प्राप्त कर सका।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मिद आदि धातुओं का अर्थ क्रमशः स्नेह, आनन्द, प्रीणन (तुप्त करना), प्राण (रक्षा), सस्नेह दर्शन और आमोद है।
  2. शद् आदि धातुओं का अर्थ क्रमशः इस प्रकार है- शातन (काटना या छेदना), शासन करना, तनुकरण (क्षीण कर देना), हिंसा करना, अवसादन (शिथिल करना), और निषूदन (वध)

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