महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 42 श्लोक 22-34

द्विचत्वारिंश (42) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद
  • धृतराष्‍ट्र बोले- इस जगत में कुछ लोग ऐसे हैं, जो धर्म का आचरण नहीं करते तथा कुछ लोग उसका आचरण करते हैं, अत: धर्म पाप के द्वारा नष्‍ट होता है या धर्म ही पाप को नष्‍ट कर देता है। (22)
  • सनत्सुजात ने कहा-राजन! धर्म और पाप दोनों के पृथक-पृथक फल होते हैं और उन दोनों का उपभोग करना पड़ता है। (23)
  • किंतु परमात्मा में स्थित होने पर विद्वान पुरुष उस[1]ज्ञान के द्वारा अपने पूर्वकृत पाप और पुण्‍य दोनों का नाश कर देता है; यह बात सदा प्रसिद्ध है। यदि ऐसी स्थिति नहीं हुई तो देहाभिमानी मनुष्‍य कभी पुण्‍यफल को प्राप्‍त करता है और कभी क्रमश: प्राप्‍त हुए पूर्वोपार्जित पाप के फल का अनुभव करता है। (24)
  • इस प्रकार पुण्‍य और पाप के जो स्‍वर्ग-नरक दो अस्थिर फल हैं, उनका भोग करके वह [2] पुन: तदनुसार कर्मों में लग जाता है; किंतु कर्मों के तत्‍व को जानने वाला पुरुष निष्‍काम धर्मरूप कर्म के द्वारा अपने पूर्व पाप का यहाँ ही नाश कर देता है। इस प्रकार धर्म ही अत्‍यंत बलवान यहाँ ही नाश कर देता है। इस प्रकार धर्म ही अत्‍यंत बलवान है। इसलिये निष्‍काम भाव से धर्माचरण करने वालों को समयानुसार अवश्‍य सिद्धि प्राप्‍त होती है। (25)
  • धृतराष्‍ट्र बोले- विद्वन! पुण्‍य कर्म करने वाले द्विजातियों को अपने-अपने धर्म के फलस्‍वरूप जिन सनातन लोकों की प्राप्ति बतायी गयी है, उनका क्रम बतालाइये तथा उनसे भिन्‍न जो अन्‍याय लोक है, उनका भी निरूपण कीजिये। अब मैं सकाम कर्म की बात नहीं जानना चाहता। (26)
  • सनत्सुजात ने कहा- जैसे दो बलवान वीरों में अपना बल बढ़ाने के निमित्त एक दूसरे से स्‍पर्धा रहती है, उसी प्रकार जो निष्‍कामभाव से यम-नियमादि के पालन में दूसरों से बढ़ने का प्रयास करते हैं, वे ब्राह्मण यहाँ से मरकर जाने के बाद ब्रह्मलोक में अपना प्रकाश फैलाते हैं। (27)
  • जिनकी धर्म के पालन में स्‍पर्धा है, उनके लिये वह ज्ञान का साधन है; किंतु वे ब्राह्मण[3] तो मृत्‍यु के पश्चात यहाँ से देवताओं के निवास स्‍थान स्‍वर्ग में जाते हैं। (28)
  • ब्राह्मण के सम्‍यक आचार की वेदवेत्ता पुरुष प्रशंसा करते हैं,किंतु जो धर्म पालन में बहिर्मुख है, उसे अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिये। जो निष्‍कामभावपूर्वक धर्म का पालन करने से अन्तर्मुख हो गया है, ऐसे पुरुष को श्रेष्‍ठ समझना चाहिये। जैसे वर्षा ऋतु में तृण-घास आदि की बहुतायत होती है, उसी प्रकार जहाँ ब्राह्मण के योग्य अन्न-पान आदि की अधिकता मालूम पड़े, उसी देश में रहकर वह जीवन निर्वाह करे। भूख-प्यास से अपने को कष्‍ट नहीं पहुँचावे। (29-30)
  • किंतु जहाँ अपना माहात्म्य प्रकाशित न करने पर भय और अमंगल प्राप्त हो, वहाँ रहकर भी जो अपनी विशेषता प्रकट नहीं करता, वही श्रेष्‍ठ पुरुष है; दूसरा नहीं। (31)
  • जो किसी को आत्मप्रशंसा करते देख जलता नहीं तथा ब्राह्मण के स्वत्व का उपभोग नहीं करता, उसके अन्न को स्वीकार करने में सत्पुरुषों की सम्मति है। (32)
  • जैसे कुत्ता अपना वमन किया हुआ भी खा लेता है, उसी प्रकार जो अपने ब्राह्मणत्व के प्रभाव का प्रदर्शन करके जीविका चलाते हैं, वे ब्राह्मण वमन का भोजन करने वाले हैं और इससे उनकी सदा ही अवनति होती है। (33)
  • जो कुटुम्बीजनों के बीच में रहकर भी अपनी साधना को उनसे सदा गुप्त रखने का प्रयत्न करता है, ऐसे ब्राह्मणों को ही विद्वान पुरुष ब्राह्मण मानते हैं। (34)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परमात्‍मा के
  2. इस जगत में जन्‍म ले
  3. यदि सकाम भाव से उसका अनुष्‍ठान करें

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