महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 39 श्लोक 71-85

एकोनचत्‍वारिंश (39) अध्‍याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 71-85 का हिन्दी अनुवाद
  • जो अपने प्रतिकूल जान पड़े, उसे दूसरों के प्रति भी न करे। थोड़े में धर्म का यही स्‍वरूप है। इसके विपरीत जिसमें कामना से प्रवृत्ति होती है, वह तो अधर्म है। (71)
  • अक्रोध से क्रोध को जीते, असाधु को सद्व्‍यवहार से वश में करे, कृपण को दान से जीते और झूठ पर सत्‍य से विजय प्राप्‍त करे। (72)
  • स्‍त्रीलम्‍पट, आलसी, डरपोक, क्रोधी, पुरुषत्‍व के अभिमानी, चोर, कृतघ्र और नास्तिक का विश्वास नहीं करना चाहिये। (73)
  • जो नित्‍य गुरुजनों को प्रणाम करता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा में लगा रहता है, उसकी कीर्ति, आयु, यश और बल ये चारों बढ़ते हैं। (74)
  • जो धन अत्‍यंत क्‍लेश उठाने से , धर्म का उल्‍लंघन करने से अथवा शत्रु के सामने सिर झुकाने से प्राप्‍त होता हो, उसमें आप मन न लगाइये। (75)
  • विद्याहीन पुरुष, संतानोत्‍पत्ति रहित स्‍त्रीप्रसंग, आहार न पाने वाली प्रजा और बिना राजा के राष्‍ट्र के लिये शोक करना चाहिये। (76)
  • अधिक राह चलना देहधारियों के लिये दु:खरूप बुढ़ापा है, बराबर पानी गिरना पर्वतों का बुढ़ापा है, सम्‍भोग से वंचित रहने का दुख स्त्रियों के लिये बुढ़ापा है और वचनरूपी बाणों का आघात मन के लिये बुढ़ापा है। (77)
  • अभ्‍यास न करना वेदों का मल है; ब्राह्मणोचित नियमों का पालन न करना ब्राह्मण का मल है, बाह्लीक देश[1]पृथ्‍वी का मल है तथा झूठ बोलना पुरुष का मल है, क्रीडा एवं हास-परिहास की उत्‍सुकता पतिव्रता स्‍त्री का मल है और पति के बिना परदेश में रहना स्‍त्री मात्र का मल है। (78-79)
  • सोने का मल है चाँदी, चाँदी का मल है राँगा, राँगे का मल है सीसा और सीसे का भी मल है मैलापन। (80)
  • अधिक सो कर नींद को जीतने का प्रयास न करे, कामोपभोग के द्वारा स्‍त्री को जीतने की इच्‍छा न करे, लकड़ी डालकर आग को जीतने की आशा न रखे और अधिक पीकर मदिरा पीने की आदत को जीतने का प्रयास न करे। (81)
  • जिसका मित्र धन-दान के द्वारा वश में आ चुका है, शत्रु युद्ध में जीत लिये गये हैं और स्त्रियाँ खान-पान के द्वारा वशीभूत हो चुकी हैं, उसका जीवन सफल है अर्थात सुखमय है। (82)
  • जिनके पास हजार रूपये हैं, वे भी जीवित हैं तथा जिनके पास सौ रूपये हैं, वे भी जीवित हैं; अत: महाराज धृतराष्‍ट्र! आप अधिक का लोभ छोड़ दीजिये,इससे भी किसी तरह जीवन नहीं रहेगा, यह बात नहीं है। (83)
  • इस पृथ्वी पर जो भी धान, जौ, सोना, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सबके सब एक पुरुष के लिये भी पर्याप्‍त नहीं है।[2] ऐसा विचार करने वाला मनुष्‍य मोह में नहीं पड़ता। (84)
  • राजन! मैं फिर कहता हूँ, यदि आपका अपने पुत्रों और पाण्‍डवों में समान भाव है तो उन सभी पुत्रों के साथ एक-सा बर्ताव कीजिये। (85)
इस प्रकारश्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अंतर्गत प्रजागरपर्वमें विदुरवाक्‍यविषयक उनतालीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बलख-बुखारा
  2. अर्थात उनसे किसी की भी तृप्ति नहीं हो सकती

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