महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 80 श्लोक 17-33

अशीतितम (80) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद


देवि! मैं पति और पुत्र दोनों से वंचित होकर दु:ख में डूब गयी हूँ। अत: अब यहीं तुम्‍हारे देखते–देखते मैं आमरण उपवास करूंगी, इसमें संशय नहीं है।' नरेश्‍वर! नागकन्‍या से ऐसा कहकर उसकी सौत चित्रवाहनकुमारी चित्रांगदा आमरण उपवास का संकल्‍प लेकर चुपचाप बैठ गयी।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– जनमेजय! तदनन्‍तर विलाप करके विरत हो चित्रांगदा अपने पति के दोनो चरण पकड़कर दीन भाव से बैठ गयी और लंबी सांस खींच-खींचकर अपने पुत्र की ओर देखने लगी। थोड़ी ही देर में राजा बभ्रुवाहन को पुन: चेत हुआ। वह अपनी माता को रणभूमि में बैठी देख इस प्रकार विलाप करने लगा- 'हाय! जो अब तक सुखों में पली थी, वही मेरी माता चित्रांगदा आज मृत्‍यु के अधीन होकर पृथ्‍वी पर पड़े हुए अपने वीर पति के साथ मरने का निश्‍चय करके बैठी हुई है।

इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्‍या हो सकती है? संग्राम में जिनका वध करना दूसरे के लिये नितान्‍त कठिन है, जो युद्ध में शत्रुओं का संहार करने वाले तथा सम्‍पूर्ण शास्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ हैं, उन्‍हीं मेरे पिता अर्जुन को आज यह मेरे ही हाथों मरकर पड़ा देख रही है। चौड़ी छाती और विशाल भुजा वाले अपने पति को मारा गया देखकर भी जो मेरी माता चित्रांगदा देवी का दृढ़ हृदय विदीर्ण नहीं हो जाता है। इससे मैं यह मानता हूँ कि अन्‍तकाल आये बिना मनुष्‍य का मरना बहुत कठिन है। तभी तो इस संकट के समय भी मेरे और मेरी माता के प्राण नहीं निकलते। हाय! हाय! मुझे धिक्‍कार है, लोगों! देख लो! मुझ पुत्र के द्वारा मारे गये कुरुवीर अर्जुन का सुनहरा कवच यहाँ फेंका पड़ा है।

हे ब्राह्मणों! देखो, मुझ पुत्र के द्वारा मार गिराये गये मेरे वीर पिता अर्जुन वीर शय्या पर सो रहे हैं। कुरुश्रेष्‍ठ युधिष्‍ठिर के घोड़े के पीछे–पीछे चलने वाले जो ब्राह्मण लोग शान्‍ति कर्म करने के लिये नियुक्‍त हुए हैं, वे इनके लिये कौन–सी शान्‍ति करते थे, जो ये रणभूमि में मेरे द्वारा मार डाले गये! ब्राह्मणों! मैं अत्‍यन्‍त क्रूर, पापी और समरांगण में पिता की हत्‍या करने वाला हूँ। बताइये, मेरे लिये अब यहाँ कौन–सा प्रायश्‍चित है? आज पिता की हत्‍या करके मेरे लिये बारह वर्षों तक कठोर व्रत का पालन करना अत्‍यन्‍त कठिन है। मुझ क्रूर पितृघाती के लिये यहाँ यही प्रायश्‍चित है कि मैं इन्‍हीं के चमड़े से अपने शरीर को आच्‍छादित करके रहूँ और अपने पिता के मस्‍तक एवं कपाल को धारण किये बारह वर्षों तक विचरता रहूँ।

पिता का वध करके अब मेरे लिये दूसरा कोई प्रायश्‍चित नहीं है। नागराज कुमारी! देखो, युद्धों में मैंने तुम्‍हारे स्‍वामी का वध किया है। सम्‍भव है आज समरांगण में इस तरह अर्जुन की हत्‍या करके मैंने तुम्‍हारा प्रिय कार्य किया हो। परन्‍तु शुभे! अब मैं शरीर को धारण नहीं कर सकता। आज मैं भी उस मार्ग पर जाऊंगा, जहाँ मेरे पिताजी गये हैं। मात:! देवी! मेरे तथा गाण्‍डीवधारी अर्जुन के मर जाने पर तुम भली-भाँति प्रसन्‍न होना। मैं सत्‍य की शपथ खाकर कहता हूँ कि पिता जी के बिना मेरा जीवन असम्‍भव है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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