सप्तविंश (27) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: सप्तविंश ध्याय: श्लोक 17-24 का हिन्दी अनुवाद
नदियों का संगम भी उसी के अत्यन्त गूढ़ हृदयाकाश में संक्षेप से होता है। जहाँ योगरूपी यज्ञ का विस्तार होता रहता है। वही साक्षात पितामह का स्वरूप है। आत्मज्ञान से तृप्त पुरुष उसी को प्राप्त होते हैं। जिनकी आशा क्षीण हो गयी है, जो उत्तम व्रत के पालन की इच्छा रखते हैं। तपस्या से जिनके सारे पाप दग्ध हो गये हैं। वे ही पुरुष अपनी बुद्धि को आत्मनिष्ठ करके परब्रह्म की उपासना करते हैं। विद्या (ज्ञान) के ही प्रभाव से ब्रह्मरूपी वन का स्वरूप समझ में आता है। इस बात को जानने वाले मनुष्य इस वन में प्रवेश करने के उद्देश्य से शम (मनोनिग्रह) की ही प्रशंसा करते हैं, जिससे बुद्धि स्थिर होती है। ब्राह्मण ऐसे गुण वाले इस पवित्र वन को जानते हैं और तत्त्वदर्शी के उपदेश से प्रबुद्ध हुए आत्मज्ञानी पुरुष उस ब्रह्मवन को शास्त्रत: जानकर शम आदि साधनों के अनुष्ठान में लग जाते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व मे ब्राह्मणगीतासम्बन्धी सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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