महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 53-71

तृतीय (3) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 53-71 का हिन्दी अनुवाद


आपके त्याग देने पर यह धन-धान्य से परिपूर्ण समुद्र से घिरी हुई सारी पृथ्वी का राज्य भी मुझे प्रसन्न नहीं रख सकता। राजेन्द्र! यह सब कुछ आपका है। मैं आपके चरणों पर मस्तक रखकर प्रार्थना करता हूँ कि आप प्रसन्न हो जाइये। हम सब लोग आपके अधीन हैं। आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। पृथ्वीनाथ! मैं समझता हूँ कि आप भवितव्यता के वश में पड़ गये थे। यदि सौभाग्यवश मुझे आपकी सेवा का अवसर मिलता रहा तो मेरी मानसिक चिन्ता दूर हो जायगी।"

धृतराष्ट्र बोले- "बेटा! कुरुनन्दन! अब मेरा मन तपस्या में ही लग रहा है। प्रभो! जीवन की अन्तिम अवस्था में वन को जाना हमारे कुल के लिये उचित भी है। पुत्र! नरेश्वर! मैं दीर्घ काल तक तुम्हारे पास रह चुका और तुमने भी बहुत दिनों तक मेरी सेवा-शुश्रूषा की। अब मेरी वृद्धावस्था आ गयी। अब तो मुझे वन में जाने की अनुमति देनी ही चाहिये।"

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! धृतराष्ट्र की यह बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर काँपने लगे और हाथ जोड़कर चुपचाप बैठे रहे। अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने उनसे उपर्युक्त बात कहकर महात्मा संजय और महारथी कृपाचार्य से कहा- "मैं आप लोगों के द्वारा राजा युधिष्ठिर को समझाना चाहता हूँ। एक तो मेरी वृद्धावस्था और दूसरे बोलने का परिश्रम, इन कारणों से मेरा जी घबरा रहा है और मुँह सूखा जाता है।" ऐसा कहकर धर्मात्मा बूढ़े राजा कुरुकुल शिरोमणि बुद्धिमान धृतराष्ट्र ने सहसा ही निर्जीव की भाँति गांधारी का सहारा लिया। कुरुराज धृतराष्ट्र को संज्ञाहीन-सा बैठा देख शत्रुवीरों का संहार करने वाले कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर को बड़ा दुःख हुआ। युधिष्ठिर ने कहा- "ओह! जिसमें एक लाख हाथियों के समान बल था, वे ही ये राजा धृतराष्ट्र आज प्राणहीन से होकर स्त्री का सहारा लिये सो रहे हैं। जिन बलवान नरेश ने पहले भी भीमसेन की लोहमयी प्रतिमा को चूर्ण कर डाला था, वे आज अबला नारी के सहारे पड़े हैं। मुझे धर्म का कोई ज्ञान नहीं है। मुझे धिक्कार है। मेरी बुद्धि और विद्या को भी धिक्कार है, जिसके कारण ये महाराज इस समय अपने लिये अयोग्य अवस्था में पड़े हुए हैं। यदि यशस्विनी गांधारी देवी और राजा धृतराष्ट्र भोजन नहीं करते हैं तो अपने इन गुरुजनों की भाँति मैं भी उपवास करूँगा।"

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! यह कहकर धर्म के ज्ञाता पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ने जल से शीतल किये हुए हाथ से धृतराष्ट्र की छाती और मुँह को धीरे-धीरे पोंछा। महाराज युधिष्ठिर के रत्नौषधिसम्पन्न उस पवित्र एवं सगुन्धित कर स्पर्श से राजा धृतराष्ट्र की चेतना लौट आयी। धृतराष्ट्र बोले- "कमलनयन पाण्डुनन्दन! तुम फिर से मेरे शरीर पर अपना हाथ फेरो और मुझे छाती से लगा लो। तुम्हारे सुखदायक स्पर्श से मानो मेरे शरीर में प्राण आ जाते हैं। नरेश्वर! मैं तुम्हारा मस्तक सूघँना चाहता हूँ और अपने दोनों हाथों से तुम्हें स्पर्श करने की इच्छा रखता हूँ। इससे मुझे परम तृप्ति मिल रही है। पिछले दिनों जब मैंने भोजन किया था, तब से आज यह आठवाँ समय, चौथा दिन पूरा हो गया है। कुरुश्रेष्ठ! इसी से शिथिल होकर मैं कोई चेष्टा नहीं कर पाता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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