चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)
महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 13-18 का हिन्दी अनुवाद
दूसरा जो अपने-पराये के ज्ञान में ही उलझा रहता है, वह अभिमान से ऊपर नहीं उठ पाता। जो किसी के लिये पराया नहीं है, उस परमात्मा को जानने वाला पुरुष उत्तम बुद्धि को पाकर मोह से मुक्त हो जाता है। वह मुक्त पुरुष अव्यक्त से ही प्रकट हुआ था और पुनः अव्यक्त में ही लीन हो गया। न मैं उसे जानता हूँ[1] न वह मुझे[2] (फिर तुम भी वैसे ही बन्धनमुक्त क्यों न हो गये? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं।) मुझमें वैराग्य नहीं है (पर वैराग्य ही मोक्ष का मुख्य साधन है)। यह पराधीन जीव जिस-जिस शरीर से कर्म करता है, उस-उस शरीर से उसका फल अवश्य भोगता है। मानस कर्म का फल मन से और शारीरिक कर्म का फल शरीर धारण करके भोगता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत पुत्रदर्शन पर्व में जनमेजय के प्रति वैशम्पायन का वाक्य विषयक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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