महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 154-170

तृतीय (3) अध्‍याय: आदि पर्व (पौष्य पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 154-170 का हिन्दी अनुवाद


‘ब्रह्मन! आप ये दोनों कुण्‍डल ग्रहण कीजिये।’ उत्तंक ने उन कुण्डलों को लिया। कुण्डल लेकर वे सोचने लगे- ‘अहो! आज ही गुरुपत्नी का वह पुण्यक व्रत है और मैं बहुत दूर चला आया हूँ। ऐसी दशा में किस प्रकार इन कुण्डलों द्वारा उनका सत्कार कर सकूँगा?’ तब इस प्रकार चिन्ता में पड़े हुए उत्तंक से उस पुरुष ने कहा- ‘उत्तंक! इसी घोड़े पर चढ़ जाओ! यह तुम्हें क्षण भर में उपाध्याय के घर पहुँचा देगा।' 'बहुत अच्छा’ कहकर उत्तंक उस घोड़े पर चढ़े और तुरन्त उपाध्याय के घर आ पहुँचे। इधर गुरु पत्नी स्नान करके बैठी हुई अपने केश सँवार रही थीं। ‘उत्तंक अब तक नहीं आया’ यह सोचकर उन्होंने शिष्य को शाप देने का विचार कर लिया। इसी बीच में उत्तंक ने उपाध्याय के घर में प्रवेश करके गुरुपत्नी को प्रणाम किया और उन्हें वे दोनों कुण्डल दे दिये। तब गुरु पत्नी ने उत्तंक से कहा- ‘उत्तंक! तू ठीक समय पर उचित स्थान में आ पहुँचा। वत्स! तेरा स्वागत है। अच्छा हुआ जो मैंने बिना अपराध के ही तुझे शाप नहीं दिया। तेरा कल्याण उपस्थित है, तुझे सिद्धि प्राप्त हो।'

तदनन्तर उत्तंक ने उपाध्याय के चरणों में प्रणाम किया। उपाध्याय ने उससे कहा- ‘वत्स उत्तंक! तुम्हारा स्वागत है। लौटने में देर क्यों लगायी?’ तब उत्तंक ने उपाध्याय को उत्तर दिया- ‘भगवन। नागराज तक्षक ने इस कार्य में विघ्न डाल दिया था। इसलिये मैं नागलोक में चला गया था। वहीं मैंने दो स्त्रियाँ देखीं, जो करघे पर सूत रखकर कपड़ा बुन रही थीं। उस करघे में काले और सफेद रंग के सूत लगे थे। वह सब क्या था? वहीं, मैंने एक चक्र भी देखा, जिसमें बारह अरे थे। छः कुमार उस चक्र को घुमा रहे थे। वह भी क्या था? वहाँ एक पुरुष भी मेरे देखने में आया था। वह कौन था? तथा एक बहुत बड़ा अश्व भी दिखायी दिया था। वह कौन था? तब उस पुरुष के कहने से मैंने उस बैल का गोबर खा लिया। अतः वह बैल और पुरुष कौन थे? मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ, वह सब क्या था?’

उत्तंक के इस प्रकार पूछने पर उपाध्याय ने उत्तर दिया- ‘वे जो दोनों स्त्रियाँ थीं, वे धाता और विधाता हैं। जो काले और सफेद तन्तु थे, वे रात और दिन हैं। बारह अरों से युक्त चक्र को जो छः कुमार घुमा रहे थे, वे छः ऋतुएँ हैं। बारह महीने ही बारह अरे हैं। संवत्सर हो वह चक्र है। जो पुरुष था, वह पर्जन्य (इन्द्र) हैं। जो अश्व था, वह अग्नि है। इधर से जाते समय मार्ग में तुमने जिस बैल को देखा था, वह नागराज ऐरावत है। और जो उस पर चढ़ा हुआ पुरुष था, वह इन्द्र हैं। तुमने बैल के जिस गोबर को खाया है, वह अमृत था। इसीलिये तुम नागलोक में जाकर भी मरे नहीं। वे भगवान इन्द्र मेरे सखा हैं। तुम पर कृपा करके ही उन्होंने यह अनुग्रह किया है। यही कारण है कि तुम दोनों कुण्डल लेकर फिर यहाँ लौट आये हो। अतः सौम्य! अब तुम जाओ, मैं तुम्हें जाने की आज्ञा देता हूँ। तुम कल्याण के भागी होओगे।’ उपाध्याय की आज्ञा पाकर उत्तंक तक्षक के प्रति कुपित हो उससे बदला लेने की इच्छा से हस्तिनापुर की और चल दिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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