द्वितीय (2) अध्याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 169-192 का हिन्दी अनुवाद
इसी पर्व में अष्टावक्र का चरित्र भी है। जिसमें बन्दी के साथ जनक के यज्ञ में ब्रह्मार्षि अष्टावक्र ने शास्त्रार्थ का वर्णन है। वह बन्दी वरुण का पुत्र था और नैयायिकों में प्रधान था। उसे महात्मा अष्टावक्र ने बन्दी को हराकर समुद्र में डाले हुए अपने पिता को प्राप्त कर लिया। इसके बाद यवक्रीत और महात्मा रैभ्य का उपाख्यान है। तदनन्तर पाण्डवों की गन्धमादन यात्रा और नारायण श्रम में निवास का वर्णन है। द्रौपदी ने सौगन्धिक कमल लाने के लिये भीमसेन को गन्धमादन पर्वत पर भेजा। यात्रा करते समय महाबाहु भीमसेन ने मार्ग में कदली-वन में महाबली पवननन्दन श्रीहनुमान जी का दर्शन किया। यहीं सौगन्धिक कमल के लिये भीमसेन ने सरोवर में घुसकर उसे मथ डाला। वहीं भीमसेन का राक्षसों एवं महाशक्तिशाली मणिमान आदि यक्षों के साथ घमासान युद्ध हुआ। तत्पश्चात भीमसेन के द्वारा जटासुर राक्षस का वध हुआ। फिर पाण्डव क्रमशः राजर्षि वृषपर्वा और आष्टिपेण के आश्रम पर गये और वहीं रहने लगे। यहीं द्रौपदी महात्मा भीमसेन को प्रोत्साहित करती रही। भीमसेन कैलास पर्वत पर चढ़ गये। यहीं अपनी शक्ति के नशे में चूर मणिमान आदि यक्षों के साथ उनका अत्यन्त घोर युद्ध हुआ। यहीं पाण्डवों का कुबेर के साथ समागम हुआ। इसी स्थान पर अर्जुन आकर अपने भाईयों से मिले। इधर सव्यसाची अर्जुन ने अपने बड़े भाई के लिये दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिये और हिरण्यपुरवासी निवातकवच दानवों के साथ उनका घोर युद्ध हुआ। वहाँ देवताओं के शत्रु भयंकर दानव निवातकवच, पौलोम और कालकेयों के साथ अर्जुन ने जैसा युद्ध किया और जिस प्रकार उन सबका वध हुआ था, वह सब बुद्धिमान अर्जुन ने धर्मराज युधिष्ठिर के पास अपने अस्त्र शस्त्रों का प्रदर्शन करना चाहा। इसी समय देवर्षि नारद ने आकर अर्जुन को अस्त्र प्रदर्शन से रोक दिया। अब पाण्डव गन्धमादन पर्वत से नीचे उतरने लगे। फिर एक बीहड़ वन में पर्वत के समान विशाल शरीरधारी बलवान अजगर ने भीमसेन को पकड़ लिया। धर्मराज युधिष्ठिर ने अजगर-वेशधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देकर भीमसेन को छुड़ा लिय। इसके बाद महानुभाव पाण्डव पुनः काम्यकवन में आये। जब नरपुगंव पाण्डव काम्यक वन में निवास करने लगे, तब उनसे मिलने के लिये वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण उनके पास आये। यह कथा इसी प्रसंग में कही गयी है। पाण्डवों का महामुनि मार्कण्डेय के साथ समागम हुआ। वहाँ महर्षि ने बहुत से उपाख्यान सुनाये। उनमें वेनपुत्र पृथु का भी उपाख्यान है। इसी प्रसंग में प्रसिद्ध महात्मा महर्षि तार्क्ष्य और सरस्वती का संवाद है। तदनन्तर मत्स्योपाख्यान भी कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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