महाभारत आदि पर्व अध्याय 176 श्लोक 19-39

षट् सप्‍तत्‍यधिकशततम (176) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व:षट् सप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद


उस क्रूरकर्मा राक्षस को सामने देख अदृश्यन्ती ने भयाकुल वाणी में वसिष्ठ जी से यह कहा- 'भगवन्! वह भयंकर राक्षस एक बहुत बड़ा काठ लेकर इधर ही आ रहा है, मानो साक्षात यमराज भयानक दण्ड लिये आ रहे हों। महाभाग! आप सम्‍पूर्ण वेदवेत्‍ताओं में श्रेष्‍ठ हैं। (इस समय) इस भूतल पर आपके सिवा दूसरा कोई नहीं हैं, जो उस राक्षस का वेग रोक सके। भगवन्! देखने में अत्‍यन्‍त भयंकर इस पापी से मेरी रक्षा कीजिये। निश्‍चय ही यह राक्षस यहाँ हम दोनों का खा जाने की घात में लगा है।' वसिष्ठ जी ने कहा- बेटी! भयभीत न हो। इस राक्षस से तो किसी प्रकार न डरो। जिससे तुम्‍हें भय उपस्थित दिखायी देता है, वह वास्‍तव में राक्षस नहीं है। ये भूमण्‍डल में विख्‍यात पराक्रमी राजा कल्‍माषपाद हैं। ये ही वन में अत्‍यन्‍त भीषण रुप धारण करके रहते हैं।

गन्‍धर्व कहते हैं- भारत! उस राक्षस को आते देख तेजस्‍वी भगवान वसिष्ठ मुनि ने हुंकारमात्र से ही रोक दिया। और मन्‍त्रपूत जल से उसके छींटे देकर अपने योग के प्रभाव से राजा को उस शाप से मुक्‍त कर‍ दिया। जैसे पूर्वकाल में सूर्य राहु द्वारा ग्रस्‍त हो जाता है, उसी प्रकार राजा कल्‍माषपाद बारह वर्षों तक वसिष्ठ जी के पुत्र शक्ति के ही तेज (शाप के प्रभाव) से ग्रस्‍त रहे। उस (मन्‍त्रपूत जल के प्रभाव से) राक्षस ने भी राजा को छोड़ दिया। फिर तो भगवान भास्‍कर जैसे संन्‍ध्‍याकालीन बादलों को अपनी (अरुण) किरणों से रंग देते हैं; उसी प्रकार राजा ने अपने (सहज) तेज से उस महान् वन को अनुरञ्जित कर दिया। तदनन्‍तर सचेत होने पर राजा कल्‍माषपाद ने तत्‍काल ही मुनिश्रेष्‍ठ वसिष्ठ को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा- महाभाग मुनिश्रेष्‍ठ! मैं आपका यजमान् सौदास हूँ। इस समय आपकी जो अभिलाषा हो, कहिये- मैं आपकी क्‍या सेवा करुं?

वसिष्ठ जी ने कहा- नरेन्‍द्र! मेरी जो अभिलाषा थी, वह समयानुसार सिद्ध हो गयी। अब जाओ, अपना राज्‍य संभालों। (आज से फिर) कभी ब्राह्मणों का अपमान न करना। राजा बोले-महाभाग! मैं कभी ब्राह्मणों का अपमान नहीं करुंगा। आपकी आज्ञा के पालन में संलग्‍न हो (सदा) ब्राह्मणों की भलीभाँति पूजा करुंगा। समस्‍त वेदवेत्‍ताओं में अग्रगण्‍य द्विजश्रेष्‍ठ! मैं आपसे एक पुत्र प्राप्‍त करना चाहता हूं, जिसके द्वारा मैं अपने इक्ष्‍वाकुवंशी पितरों के ऋण से उऋण हो सकूं। साधु शिरोमणे! इक्ष्‍वाकुवंश की वृद्धि के लिये आप मुझे ऐसी अभीष्‍ट संतान दीजिये, जो अक्षम स्‍वभाव, सुन्‍दर रुप और श्रेष्‍ठ गुणों से सम्‍पन्‍न हो।

गन्‍धर्व कहता हैं- कुन्‍तीनन्‍दन! तब सत्‍यप्रतिज्ञ विप्रवर वसिष्ठ ने महान् धनुर्धर राजा कल्‍माषपाद से उत्तर में कहा- मैं तुम्‍हें वैसा ही पुत्र दूंगा। मनुजेश्वर! तदनन्‍तर यथासमय राजा के साथ वसिष्ठ जी उनकी राजधानी में गये, जो लोकों में अयोध्‍यापुरी के नाम से प्रसिद्ध है। अपने पापरहित महात्‍मा नरेश का आगमन सुनकर अयोध्‍या की सारी प्रजा अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो उनकी अगवानी के लिये ठीक उसी तरह बाहर निकल आयी, जैसे देवता लोग अपने स्‍वामी इन्‍द्र का स्‍वागत करते हैं। बहुत वर्षों के बाद राजा ने उस पुण्‍यमयी नगरी में प्रसिद्ध महर्षि वसिष्ठ के साथ प्रवेश किया। अयोध्‍यावासी लोगों ने पुरोहित के साथ आये राजा कल्‍माषपाद का उसी प्रकार दर्शन किया, जैसे (प्रात:काल) प्रजा उदित हुए भगवान सूर्य का दर्शन करती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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