महाभारत आदि पर्व अध्याय 175 श्लोक 20-39

पंचसप्‍तत्‍यधिकशततम (175) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

Prev.png

महाभारत: आदि पर्व: पंचसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद


कुरुश्रेष्ठ! राजा के मनोभाव को समझकर उक्‍त विश्वामित्र जी ने एक राक्षस को राजा के भीतर प्रवेश करने के लिये आज्ञा दी। ब्रह्मर्षि शक्ति के शाप तथा विश्वामित्र जी की आज्ञा से किकर नामक राक्षस ने तब राजा के भीतर प्रवेश किया। शत्रुसूदन! राक्षस ने राजा को आविष्‍ट कर लिया है, यह जानकर मुनिवर विश्वामित्र जी भी उस स्‍थान से चले गये। कुन्‍तीनन्‍दन! भीतर घुसे हुए राक्षस से अत्‍यन्‍त पीड़ित हो उन नरेश को किसी भी बात की सुध-बुध न रही। एक दिन किसी ब्राह्मण ने (राक्षस से आविष्‍ट) राजा को वन की ओर जाते देखा और भूख से अत्‍यन्‍त पीड़ित होने के कारण उनसे मांससहित भोजन मांगा। तब राजर्षि मित्रसह (कल्‍माषपाद) ने उस द्विज से कहा- ब्रह्न्! आप यहीं बैठिये और दो घड़ी तक प्रतीक्षा कीजिये। मैं वन से लौटने पर आपको यथेष्‍ट भोजन दूंगा। यह कहकर राजा चले गये और वह ब्राह्मण (वहां) ठहर गया। पार्थ! तत्‍पश्‍चात् महामना राजा मित्रसह इच्‍छानुसार मौज से घूम-फिरकर जब लौटे, तब अन्‍त:पुर में चले गये। वहाँ आधी रात के समय उन्‍हें ब्राह्मण को भोजन देने की प्रतिज्ञा का स्‍मरण हुआ। फिर तो वे उठ बैठे और तुरंत रसोइये को बुलाकर बोले- आओ, वन के अमुक प्रदेश में एक ब्राह्मण भोजन के लिये मेरी प्र‍तीक्षा करता है। उसे तुम मांसयुक्‍त भोजन से तृप्‍त करो।

गन्‍धर्व कहता है- उनके यों कहने पर रसोइये ने मांस के लिये खोज की, परंतु जब कहीं भी मांस नहीं मिला, तब उसने दुखी होकर राजा को इस बात की सूचना दी। राजा पर राक्षस का आवेश था, अत: उन्‍होंने रसोइये से निश्चित होकर कहा- उस ब्राह्मण को मनुष्‍य का मांस ही खिला दो यह बात उन्‍होंने बार-बार दुहरायी। तब रसोइया तथास्‍तु कहकर वध्‍यभूमि में जल्‍लादों के घर गया और उनसे निर्भय होकर तुरंत ही मनुष्‍य का मांस ले आया। फिर उसी को तुरंत विधिपूर्वक रांधकर अन्‍न के साथ उसे उस तपस्‍वी एवं भूखे ब्राह्मण को दे दिया। तब उस श्रेष्‍ठ ब्राह्मण ने तप:सिद्ध दृष्टि से उस अन्‍न को देखा और यह खाने योग्‍य नहीं है यो समझकर क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखते हुए कहा। ब्राह्मण ने कहा- वह नीच राजा मुझे न खाने योग्‍य अन्‍न दे रहा है, अत: उसी मूर्ख की जिह्वा ऐसे अन्‍न के लिये लालायित रहेगी। जैसा कि शक्ति मुनि ने कहा है, वह मनुष्‍यों के मांस मे आसक्‍त हो समस्‍त प्राणियों का उद्वेगपात्र बनकर इस पृथ्‍वी पर विचरेगा। दो बार इस तरह की बात कही जाने के कारण राजा का शाप प्रबल हो गया। उसके साथ उनमें राक्षस के बल का समाहित हो जाने के कारण राजा की विवेकशक्ति सर्वथा लुप्‍त हो गयी। भारत! राक्षस ने राजा के मन और इन्द्रियों को काबू में कर लिया था, अत: उन नृपश्रेष्ठ ने कुछ ही दिनों बाद उस शक्ति मुनि को अपने सामने देखकर कहा- चूंकि तुमने मुझे यह सर्वथा अयोग्‍य शाप दिया है, अत: अब मैं तुम्‍हीं से मनुष्‍यों का भक्षण आरम्‍भ करुंगा।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः