महाभारत आदि पर्व अध्याय 150 श्लोक 16-33

पंचाशदधिकशततम (150) अध्‍याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: पंचाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! भरतवंशियों में श्रेष्‍ठ भीमसेन उन सबको वहीं बुलाकर कहा- 'आप लोग यहाँ विश्राम करें, तब तक मैं पानी का लगाता हूँ। ये जलचर सारस पक्षी बड़ी मीठी बोली बोल रहे हैं (अत:) यहाँ (पास में) अवश्‍य कोई महान जलाशय होगा- ऐसा मेरा विश्‍वास है।' भारत! तब बड़े भाई युधिष्ठिर ने ‘आओ!’ कहकर उन्‍हें अनुमती दे दी। आज्ञा पाकर भीमसेन वहीं गये, जहाँ ये जलचर सारस पक्षी कलरव कर रहे थे। भरतश्रेष्‍ठ! यहाँ पानी पीकर स्‍नान कर लेने के पश्‍चात् भाइयों पर रखने वाले भीम उनके लिये भी चादर में पानी ले आये। दो कोस दूर से जल्‍दी-जल्‍दी चलकर भीमसेन अपनी माता के पास आये। उनका मन शोक और दु:ख से व्‍याप्‍त था और वे सर्प की भाँति लंबी सांस खींच रहा था। माता और भाइयों को धरती पर सोया देख भीमसेन मन-ही-मन अत्‍यन्‍त शोक से संतप्‍त हो गये और इस प्रकार विलाप करने लगे- ‘हाय! मैं कितना भाग्‍यहीन हूँ कि आज अपने भाइयों का पृथ्‍वी पर सोया देख रहा हूँ। इससे महान् कष्‍ट की बात देखने में क्‍या आयेगी। आज से पहले जब हम लोग वारणावत नगर में थे, उस समय जिन्‍हें बहुमूल्‍य शय्‍याओं पर भी नींद नहीं आती थीं, वे ही आज धरती पर सो रहे हैं?

जो शत्रुसमूह का संहार करने वाले वसुदेव जी की बहिन तथा महाराज कुन्तिभोज की कन्‍या दें, समस्‍त शुभ लक्षणों के कारण जिनका सदा समादर होता आया हैं, जो राजा विचित्रवीर्य की पुत्रवधू तथा महात्‍मा पाण्‍डु की धर्मपत्‍नी हैं, जिन्‍होंने हम-जैसे पुत्रों को जन्‍म दिया हैं, जिनकी अंगकान्ति कमल के भीतरी भाग के समान हैं, जो अत्‍यन्‍त सुकुमार और बहुमुल्‍य शय्‍या पर शयन करने के योग्‍य हैं, देखों, आज वे ही कुन्‍ती देवी यहाँ भूमि पर सोयी हैं। ये कदापि इस तरह शयन करने के योग्‍य नहीं है। जिन्‍होंने धर्म, इन्‍द्र, और वायु के द्वारा हम-जैसे पुत्रों को उत्‍पन्‍न किया है, वे राजमहल में सोने वाली महारानी कुन्‍ती आज परिश्रम से थककर यहाँ पृथ्‍वी पर पड़ी है। इससे बढ़कर दु:ख में और क्‍या देख सकता हूँ जबकि अपने नरश्रेष्‍ठ भाइयों को आज मुझे धरती पर सोते देखना पड़ रहा है। जो नित्‍य धर्मपरायण नरेश तीनों लोकों का राज्‍य पाने के अविकारी हैं, वे ही आज साधारण मनुष्‍यों की भाँति थके-मांदे पृथ्‍वी पर कैसे पड़े है।

मनुष्‍यों में जिनका कहीं समता नहीं हैं, वे नील मेघ के समान श्‍याम कान्ति वाले अर्जुन आज प्राकृतजनों की भाँति पृथ्‍वी-पर सो रहे हैं; इससे महान् दु:ख और क्‍या हो सकता है। जो अपनी रुप-सम्‍पति देवताओं में अश्रिवनी कुमारों के समान जान पड़ते हैं, वे ही ये दोनों नकुल-सहदेव आज यहाँ साधारण मनुष्‍यों के समान जमीन पर सोये पड़े हैं। जिसके कुटुम्‍बी पक्षपातयुक्‍त और कुल को कलक लगाने वाले नहीं होते, वह पुरुष गांव के अकेले वृक्ष की भाँति संसार में सुखपूर्वक जीवन धारण करता हैं। गांव में यदि एक ही वृक्ष पत्र और फल-फूलों से सम्‍पन्‍न हो तो वह दूसरे सजातीय वृक्षों से रहित होने पर भी चैत्‍य (देववृक्ष) माना जाता है तथा उसे पूज्‍य मानकर उसकी खूब पूजा की जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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