षष्ठ (6) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 35-49 का हिन्दी अनुवाद
संसार में समस्त सुदुर्लभ सुख-भोग किसी पापी को प्राप्त हो जाये तो भी वह उसके पास टिकता नहीं, शीघ्र ही उसे छोड़कर चल देता है। जो मनुष्य लोभ और मोह में डूबा हुआ है, उसे दैव भी संकट से नहीं बचा सकता। जैसे थोड़ी-सी भी आग वायु का सहारा पाकर बहुत बड़ी हो जाती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ का सहारा पाकर दैव का बल विशेष बढ़ जाता है। जैसे तेल समाप्त हो जाने से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर दैव भी नष्ट हो जाता है। उद्योगहीन मनुष्य धन का बहुत बड़ा भण्डार, तरह-तरह के भोग और स्त्रियों को पाकर भी उनका उपभोग नहीं कर सकता, किंतु सदा उद्योग में लगा रहने वाला महामनस्वी पुरुष देवताओं द्वारा सुरक्षित तथा गाड़कर रखे हुए धन को भी प्राप्त कर लेता है। जो दान करने के कारण निर्धन हो गया है, ऐसे सत्पुरुष के पास उसके सत्कर्म के कारण देवता भी पहुँचते हैं और इस प्रकार उसका घर मनुष्य लोक की अपेक्षा श्रेष्ठ देवलोक-सा हो जाता है। परंतु जहाँ दान नहीं होता, वह घर बड़ी भारी समृद्धि से भरा हो तो भी देवताओं की दृष्टि में वह श्मशान के ही तुल्य जान पड़ता है। इस जीव-जगत में उद्योगहीन मनुष्य कभी फूलता-फलता नहीं दिखायी देता। दैव में इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसे कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगा दे। जैसे शिष्य गुरु को आगे करके चलता है, उसी तरह दैव पुरुषार्थ को ही आगे करके स्वयं उसके पीछे चलता है। संचित किया हुआ पुरुषार्थ ही दैव को जहाँ चाहता है, वहाँ-वहाँ ले जाता है। मुनिश्रेष्ठ! मैंने सदा पुरुषार्थ के ही फल को प्रत्यक्ष देखकर यथार्थ रूप से ये सारी बातें तुम्हें बतायी हैं। मनुष्य दैव के उत्थान से आरम्भ किये हुए पुरुषार्थ से उत्तम विधि और शास्त्रोक्त सत्कर्म से ही स्वर्गलोक का मार्ग पा सकता है।" इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में दैव और पुरुषार्थ का निर्देश विषयक छठा अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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