षट्षष्टितम (66) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 44-65 का हिन्दी अनुवाद
भरतश्रेष्ठ! ये गौएँ प्राणियों (को दूध पिलाकर पालने के कारण उन) के प्राण कहलाती हैं; इसलिये जो दूध देने वाली गौओं का दान करता है, वह मानो प्राणों का दान देता है। वेदवेत्ता विद्वान ऐसा मानते हैं कि ‘गौएँ समस्त प्राणियों को शरण देने वाली हैं’। इसलिये जो धेनू दान करता है, वह सबको शरण देने वाला है। भरतश्रेष्ठ! जो मनुष्य वध करने के लिये गौ मांग रहा हो, उसे कदापि गाय नहीं देनी चाहिये। इसी प्रकार कसाई को, नास्तिक को, गाय से ही जीविका चलाने वाले को, गौरस बेचने वाले और पंचयज्ञ न करने वाले को भी गाय नहीं देनी चाहिये। ऐसे पापकर्मी मनुष्यों को जो गाय देता है, वह मनुष्य अक्षय नरक में गिरता है, ऐसा महर्षियों का कथन है। जो दुबली हो, जिसका बछड़ा मर गया हो तथा जो ठाँठ, रोगिणी, किसी अंग से हीन और थकी हुई (बूढ़ी) हो, ऐसी गौ ब्राह्मण को नहीं देनी चाहिये। दस हज़ार गोदान करने वाला मनुष्य इन्द्र के साथ रहकर आनन्द भोगता है और जो लाख गौओं का दान कर देता है, उस मनुष्य को अक्षय लोक प्राप्त होते हैं। भारत! इस प्रकार गोदान, तिलदान और भूमिदान का महत्त्व बतलाया गया। अब पुनः अन्न दान की महिमा सुनो। कुन्तीनन्दन! विद्वान पुरुष अन्नदान को सब दानों में प्रधान बताते हैं। अन्नदान करने से ही राजा रन्तिदेव स्वर्गलोक में गये थे। नरेश्वर! जो भूमिपाल थके-मांदे और भूखे मनुष्य को अन्न देता है, वह ब्रह्मा जी के परमधाम में जाता है। भरतनन्दन! प्रभो! अन्नदान करने वाले मनुष्य जिस तरह कल्याण के भागी होते हैं, वैसा कल्याण उन्हें सुवर्ण, वस्त्र तथा अन्य वस्तुओं के दान से नहीं प्राप्त होता है। अन्न प्रथम द्रव्य है। वह उत्तम लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। अन्न से ही प्राण, तेज, वीर्य और बल की पुष्टि होती है। पराशर मुनि का कथन है कि ‘जो मनुष्य सदा एकाग्रचित्त होकर याचक को तत्काल अन्न का दान करता है, उस पर कभी दुर्गम संकट नहीं पड़ता। राजन! मनुष्य को प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधि से देवताओं की पूजा करके उन्हें अन्न निवेदन करना चाहिये। जो पुरुष जिस अन्न का भोजन करता है, उसके देवता भी वही अन्न ग्रहण करते हैं। जो कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में अन्न का दान करता है, वह दुर्गम संकट से पार हो जाता है और मरकर अक्षय सुख का भागी होता है। भरतश्रेष्ठ! जो पुरुष एकाग्रचित्त हो स्वयं भूखा रहकर अतिथि को अन्नदान करता है, वह ब्रह्मवेत्ताओं के लोक में जाता है। अन्नदाता मनुष्य कठिन-से-कठिन आपत्ति में पड़ने पर भी उस आपत्ति से पार हो जाता है। वह पाप से उद्धार पा जाता है और भविष्य में होने वाले दुष्कर्मों का भी नाश कर देता है। इस प्रकार मैंने यह अन्नदान, तिलदान, भूमिदान और गोदान का फल बताया है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ। \
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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