महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 66 श्लोक 22-43

षट्षष्टितम (66) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद


देवताओं ने कहा- भगवन! हमारा कार्य हो गया। अब हम पर्याप्त दक्षिणा वाले यज्ञपुरुष का यजन करेंगे। यह जो हिमालय के पास का प्रदेश है, इसका ऋषि-मुनि सदा से ही आश्रय लेते हैं (अतः हमारा यज्ञ भी यहीं होगा)। तदनन्तर अगस्त्य, कण्व, भृगु, अत्रि, वृषाकपि, असित और देवल देवताओं के उस यज्ञ में उपस्थित हुए। तब महामनस्वी देवताओं ने यज्ञपुरुष अच्युत का यजन आरम्भ किया और उन श्रेष्ठ देवगणों ने यथासमय यज्ञ को समाप्त भी कर दिया। पर्वतराज हिमालय के पास यज्ञ पूरा करके देवताओं ने भूमिदान भी दिया, जो उस यज्ञ के छठे भाग के बराबर पुण्य का जनक था। जिसको खोद-खादकर खराब न कर दिया गया हो, ऐसे प्रदेशमात्र भूभाग का जो दान करता है, वह न तो दुर्गम संकटों में पड़ता और न पड़ने पर कभी दुःखी ही होता है। जो सर्दी, गर्मी और हवा के वेग को सहन करने योग्य सजी-सजायी गृह-भूमि दान करता है, वह देवलोक में निवास करता है। पुण्य का भोग समाप्त होने पर भी वहाँ से हटाया नहीं जाता।

पृथ्वीनाथ! जो विद्वान गृह दान करता है, वह भी उसके पुण्य से इन्द्र के साथ आनन्दपूर्वक निवास करता और स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। अध्यापक-वंश में उत्पन्न श्रोत्रिय एवं जितेन्द्रिय ब्राह्मण जिसके दिये हुए घर में प्रसन्नता से रहता है, उसे श्रेष्ठ लोक प्राप्त होते हैं। भरतश्रेष्ठ! जो गौओं के लिये सर्दी और वर्षा से बचाने वाला सुदृढ़ निवास स्थान बनवाता है, वह अपनी सात पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। खेत के योग्य भूमि दान करने वाला मनुष्य जगत में शुभ संपत्ति प्राप्त करता है और जो रत्नयुक्त भूमि का दान करता है, वह अपने कुल की वंश-परंपरा को बढ़ाता है। जो भूमि ऊसर, जली हुई और श्मशान के निकट हो तथा जहाँ पापी पुरुष निवास करते हों, उसे ब्राह्मण को नहीं देना चाहिये। जो परायी भूमि में पितरों के लिये श्राद्ध करता है अथवा जो उस भूमि को पितरों के लिये दान में देता है, उसके वे श्राद्ध कर्म और दान दोनों ही नष्ट (निष्फल हो जाते) हैं। अतः विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह थोड़ी-सी भी भूमि खरीद कर उसका दान करे। खरीद कर अपनी की हुई भूमि में ही पितरों को दिया हुआ पिण्ड सदा स्थिर रहने वाला होता है। वन, पर्वत, नदी और तीर्थ- ये सब स्थान किसी स्वामी के अधीन नहीं होते हैं। (इन्हें सार्वजनिक माना जाता है), इसलिये वहाँ श्राद्ध करने के लिये भूमि खरीदने की आवश्‍यकता नहीं है। प्रजानाथ! इस प्रकार यह भूमिदान का फल बताया गया है।

अनघ! इसके बाद में तुम्हें गोदान का माहात्मय बताऊँगा। गौएँ समस्त तपस्वियों से बढ़कर हैं; इसलिये भगवान शंकर ने गौओं के साथ रहकर तप किया था। भारत! ये गौएँ चन्द्रमा के साथ उस ब्रह्मलोक में निवास करती हैं, जो परमगति रूप है और जिसे सिद्ध ब्रह्मर्षि भी प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं। भरतनन्दन! ये गौएँ अपने दूध, दही, घी, गोबर, चमड़ा, हड्डी, सींग और बालों से भी जगत का उपकार करती रहती हैं। इन्हें सर्दी, गर्मी और वर्षा का भी कष्ट नहीं होता है। ये सदा ही अपना काम किया करती हैं। इसलिये ये ब्राह्मणों के साथ परमपदस्वरूप ब्रह्मलोक में चली जाती हैं। इसी से गौ और ब्राह्मण को मनस्वी पुरुष एक बताते हैं। राजन! राजा रन्तिदेव के यज्ञ में वे पशु रूप से दान देने के लिये निश्चित की गयी थीं; अतः गौओं के चमड़ों से वह चर्मण्वती नामक नदी प्रवाहित हुई थी। वे सभी गौएँ पशुत्व से विमुक्त थीं और दान देने के लिये नियत की गयी थीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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