द्विषष्टितम (62) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: द्विषष्टितम अध्याय: श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद
जो राजा कठोर कर्म करने वाले तथा पाप परायण हैं, उन्हें पापों से मुक्त होने के लिये परम पवित्र एवं सबसे उत्तम भूमि का उपदेश देना चाहिये। प्राचीन काल के लोग सदा यह मानते रहे हैं कि जो अश्वमेध यज्ञ करता है अथवा जो श्रेष्ठ पुरुष को पृथ्वी दान करता है, इन दोनों में बहुत कम अन्तर है। दूसरा कोई पुण्य कर्म करके उसके फल के विषय में विद्वान पुरुषों को भी शंका हो जाये, यह संभव है; किंतु एक मात्र यह सर्वोत्तम भूमिदान ही ऐसा सत्कर्म है, जिसके फल के विषय में किसी को शंका नहीं हो सकती। जो महाबुद्धिमान पुरुष पृथ्वी का दान करते हैं, वह सोना, चाँदी, वस्त्र, मणि, मोती तथा रत्न- इन सबका दान कर देता है अर्थात इन सभी दानों का फल प्राप्त कर लेता है। पृथ्वी का दान करने वाले पुरुष को तप, यज्ञ, विद्या, सुशीलता, लोभ का अभाव, सत्यवादिता, गुरुशुश्रूषा और देव आराधना- इन सबका फल प्राप्त हो जाता है। जो अपने स्वामी का भला करने के लिये रणभूमि में मारे जाकर शरीर त्याग देते हैं और जो सिद्ध होकर ब्रह्मलोक पहुँच जाते हैं, वे भी भूमिदान करने वाले पुरुष को लांघकर आगे नहीं बढ़ने पाते। जैसे माता अपने बच्चे को सदा दूध पिलाकर पालती है, उसी प्रकार पृथ्वी सब प्रकार के रस देकर भूमिदाता पर अनुग्रह करती है। काल की भेजी हुई मौत, दण्ड, तमोगण, दारुण अग्नि और अत्यंत भयंकर पाश- ये भूमिदान करने वाले पुरुष का स्पर्श नहीं कर सकते हैं। जो पृथ्वी का दान करता है, वह शांतचित्त पुरुष पितृलोक में रहने वाले पितरों और देवलोक से आये हुए देवताओं को भी तृप्त कर देता है। दुर्बल, जीविका के बिना दु:खी और भूख के कष्ट से मरते हुए ब्राह्मण को उपजाऊ भूमि दान करने वाला मनुष्य यज्ञ का फल पाता है। महाभाग! जैसे बछड़े के प्रति वात्सल्य भाव से भरी हुई गौ अपने थनों से दूध बहाती हुई उसे पिलाने के लिये दौड़ती है, उसी प्रकार ये पृथ्वी भूमिदान करने वाले को सुख पहुँचाने के लिये दौड़ती है। जो मनुष्य जोती-बोयी और उपजी हुई खेती से भरी भूमि का दान करता है अथवा विशाल भवन बनवाकर देता है, उसकी समस्त कामनाऐं पूर्ण हो जाती हैं। जो सदाचारी, अग्निहोत्री और उत्तम व्रत में संलग्न ब्राह्मण को पृथ्वी का दान करता है, वह कभी भारी विपत्ति में नहीं पड़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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