एकचत्वारिंश (41) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! महात्मा विपुल का वह कथन सुनकर इन्द्र बहुत लज्जित हुए और कुछ भी उत्तर न देकर वहीं अन्तर्धान हो गये। इंद्र के गये अभी एक मुहूर्त बीतने पाया था कि महातपस्वी देव शर्मा इच्छानुसार यज्ञ पूर्ण करके अपने आश्रम पर लौट आये। राजन! गुरु के आने पर उनका प्रिय कार्य करने वाले विपुल ने अपने द्वारा सुरक्षित हुई उनकी सती-साध्वी भार्या रुचि को उन्हें सौंप दिया। शान्त चित्त वाले गुरुप्रेमी विपुल गुरुदेव को प्रणाम करके पहले की ही भाँति निर्भीक होकर उनकी सेवा में उपस्थित हुए। जब गुरु जी विश्राम करके अपनी पत्नी के साथ बैठे, तब विपुल ने वह सारी करतूत उन्हें बतायी। यह सुनकर प्रतापी मुनि देव शर्मा विपुल के शील, सदाचार, तप और नियम से बहुत संतुष्ट हुए। विपुल की गुरुसेवावृत्ति, अपने प्रति भक्ति और धर्म विषयक दृढ़ता देखकर गुरु ने ‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’ कहकर उनकी प्रशंसा की। परम बुद्धिमान धर्मात्मा देव शर्मा ने अपने धर्म-परायण शिष्य विपुल को पाकर उन्हें इच्छानुसार वर माँगने को कहा। गुरुवत्सल विपुल ने गुरु से यही वर माँगा कि ‘मेरी धर्म में निरन्तर स्थिति बनी रहे।’ फिर गुरु की आज्ञा लेकर उन्होंने सर्वोत्तम तपस्या आरम्भ की। महातपस्वी देव शर्मा भी बल और वृत्रासुर का वध करने वाले इन्द्र से निर्भय हो पत्नी सहित उस निर्जन वन में विचरने लगे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तगर्त दानधर्म पर्व में विपुल का उपाख्यान विषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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