षड्-विंश (26) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: षड्-विंश अध्याय: श्लोक 63-87 का हिन्दी अनुवाद
जो साधु पुरुषों द्वारा सम्मानित तथा संयतचित्त मनुष्य प्राण निकलते समय मन-ही-मन गंगा जी का स्मरण करता है, वह परम उत्तम गति को प्राप्त कर लेता है। जो पुरुष यहाँ जीवनपर्यन्त गंगा जी की उपासना करता है, उसे भयदायक वस्तुओं से, पापों से तथा राजा से भी भय नहीं होता। भगवान महेश्वर ने आकाश से गिरती हुई परम पवित्र गंगा जी को सिर पर धारण किया, उन्हीं का वे स्वर्ग में सेवन करते हैं। जिन्होंने तीन निर्मल मार्गों द्वारा आकाश, पाताल तथा भूतल- इन तीन लोकों को अलंकृत किया है, उन गंगा जी के जल का जो मनुष्य सेवन करेगा, वह कृतकृत्य हो जायेगा। स्वर्गवासी देवताओं में जैसे सूर्य का तेज श्रेष्ठ है, जैसे पितरों में चन्द्रमा तथा मनुष्यों में राजाधिराज श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त सरिताओं में गंगा जी उत्तम हैं। (गंगा जी में भक्ति रखने वाले पुरुष को) माता, पिता, पुत्र, स्त्री और धन का वियोग होने पर भी उतना दुःख नहीं होता, जितना गंगा के बिछोह से होता है। इसी प्रकार उसे गंगा जी के दर्शन से जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी वन के दर्शनों से, अभीष्ट विषय से, पुत्रों से तथा धन की प्राप्ति से भी नहीं होती। जैसे पूर्ण चन्द्रमा का दर्शन करके मनुष्यों की दृष्टि प्रसन्न हो जाती है, उसी तरह त्रिपथगा गंगा का दर्शन करके मनुष्यों के नेत्र आनन्द से खिल उठते हैं। जो गंगा जी में श्रद्धा रखता, उन्हीं में मन लगाता, उन्हीं के पास रहता, उन्हीं का आश्रय लेता तथा भक्तिभाव से उन्हीं का अनुसरण करता है, वह भोगवती भागीरथी का स्नेह-भाजन होता है। पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्ग में रहने वाले छोटे-छोटे सभी प्राणियों को चाहिये कि वे निरन्तर गंगा जी में स्नान करें। यही सत्पुरुषों का सबसे उत्तम कार्य है। सम्पूर्ण लोकों में परम पवित्र होने के कारण गंगा जी का यश विख्यात है; क्योंकि उन्होंने भस्मीभूत होकर पड़े हुए सगरपुत्रों को यहाँ से स्वर्ग में पहुँचा दिया। वायु से प्रेरित हो बड़े वेग से अत्यन्त ऊँचे उठने वाली गंगा जी की परम मनोहर एवं कान्तिमयी तरंगमालाओं से नहाकर प्रकाशित होने वाले पुरुष परलोक में सूर्य के समान तेजस्वी होते हैं। दुग्ध के समान उज्ज्वल और घृत के समान स्निग्ध जल से भरी हुई, परम उद्धार, समृद्धिशालिनी, वेगवती तथा अगाध जलराशि वाली गंगा जी के समीप जाकर जिन्होंने अपना शरीर त्याग दिया है, वे धीर पुरुष देवताओं के समान हो गये। इन्द्र आदि देवता, मुनि और मनुष्य जिनका सदा सेवन करते हैं वे यशस्विनी, विशालकलेवरा, विश्वरूपा गंगा देवी अपनी शरण में आये हुए अन्धों, जडों और धनहीनों को भी सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं से सम्पन्न कर देती है। गंगा जी ओजस्विनी, परम पुण्यमय, मधुर जलराशि से परिपूर्ण तथा भूतल, आकाश और पाताल- इन तीन मार्गों पर विचरने वाली हैं। जो लोग तीनों लोकों की रक्षा करने वाली गंगा जी की शरण में आये हैं, वे स्वर्गलोक को चले गये। जो मनुष्य गंगा जी के तट पर निवास और उनका दर्शन करता है, उसे सब देवता सुख देते हैं, वे गंगा जी के स्पर्श और दर्शन से पवित्र हो गये हैं, उन्हें गंगा जी से ही महत्त्व को प्राप्त हुए देवता मनोवांछित गति प्रदान करते हैं। गंगा जगत का उद्धार करने में समर्थ हैं। भगवान पृश्निगर्भ की जननी 'पृश्नि' के तुल्य हैं, विशाल हैं, सबसे उत्कृष्ट हैं, मंगलकारिणी हैं, पुण्यराशि से समृद्ध हैं, शिव जी के द्वारा मस्तक पर धारित होने के कारण सौभाग्यशालिनी तथा भक्तों पर अत्यन्त प्रसन्न रहने वाली हैं। इतना ही नहीं, पापों का विनाश करने के लिये वे कालरात्रि के समान हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों की आश्रयभूत हैं। जो लोग गंगा जी की शरण में गये हैं, वे स्वर्गलोक में जा पहुँचे हैं। आकाश, स्वर्ग, पृथ्वी, दिशा और विदिशाओं में भी जिनकी ख्याति फैली हुई है, सरिताओं में श्रेष्ठ उन भोगवती भागीरथी के जल का सेवन करके सभी मनुष्य कृतार्थ हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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