महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 23 श्लोक 30-45

त्रयोविंश (23) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 30-45 का हिन्दी अनुवाद


राजन! जो व्रतहीन, धूर्त, चोर, प्राणियों का क्रय-विक्रय करने वाला अर्थात वणिक्-वृत्ति से जीविका चलाने वाला होकर भी पीछे यज्ञ का अनुष्ठान करके उसमें सोमरस का पान कर चुका है, वह भी निमंत्रण पाने का अधिकारी है। नरेश्वर! जो पहले कठोर कर्मों द्वारा भी धन का उपार्जन करके पीछे सब प्रकार से अतिथियों का सेवक हो जाता है, वह श्राद्ध में बुलाने योग्य है। जो धन वेद बेचकर लाया गया हो या स्त्री की कमाई से प्राप्त हुआ हो अथवा लोगों के सामने दीनता दिखाकर माँग लाया गया हो, वह श्राद्ध में ब्राह्मणों को देने योग्य नहीं है।

भरतश्रेष्ठ! जो ब्राह्मण श्राद्ध की समाप्ति होने पर ’अस्तु स्वधा’ आदि तत्कालोचित वचनों का प्रयोग नहीं करता है, उसे गाय की झूठी शपथ खाने का पाप लगता है। युधिष्ठिर! जिस दिन भी सुपात्र ब्राह्मण, दही, घी, अमावस्या तिथि तथा जंगली कन्द, मूल और फलों का गूदा प्राप्त हो जाये, वही श्राद्ध का उत्तम काल है। दिन का प्रथम तीन मुहूर्त प्रातःकाल कहलाता है। उसमें ब्राह्मणों को जप और ध्यान आदि के द्वारा अपने लिये कल्याणकारी व्रत आदि का पालन करना चाहिये। उसके बाद का तीन मुहूर्त सगंव कहलाता है तथा संगव के काल बाद तीन मुहूर्त मध्याह्ण कहलाता है। संगव काल में लौकिक कार्य देखना चाहिये और मध्याह्न काल में स्नान-संध्यावन्दन आदि करना उचित है। मध्याह्न के बाद का तीन मुहूर्त अपराह्ण कहलाता है। यह दिन का चौथा भाग पितृकार्य के लिये उपयोगी है। उसके बाद का तीन मुहूर्त सायाह्न कहा गया है। इसे विद्वानों ने दिन और रात के बीच का समय माना है।

ब्राह्मण के यहाँ श्राद्ध समाप्त होने पर ’स्वधा सम्पद्यताम्’ इस वाक्य का उच्चारण करने पर पितरों को प्रसन्नता होती है। क्षत्रिय के यहाँ श्राद्ध की समाप्ति में ‘पितरः प्रीयन्ताम’ (पितर तृप्त हो जायें) इस वाक्य का उच्चारण करना चाहिये। भारत! वैश्य के घर श्राद्धकर्म की समाप्ति पर ‘अक्षयमस्तु’ (श्राद्ध का दान अक्षय हो) कहना चाहिये और शूद्र के श्राद्ध की समाप्ति के अवसर पर ‘स्वस्ति’ (कल्याण हो) इस वाक्य का उच्चारण करना उचित है। इसी तरह जब ब्राह्मण के यहाँ देवकार्य होता हो, तब उसमें ॐकारसहित पुण्याहवाचन का विधान है (अर्थात ‘पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु-आप लोग पुण्याहवाचन करें’ ऐसा यज्ञमान के कहने पर ब्राह्मणों को 'ॐ पुण्याहम्' कहना चाहिये। यही वाक्य क्षत्रिय के यहाँ बिना ॐकार के उच्चारण करना चाहिये। वैश्य के घर देवकर्म में ‘प्रीयन्तां देवताः’ इस वाक्य का उच्चारण करना चाहिये। :अब क्रमश तीनों वर्णों के कर्मानुष्ठान की विधि सुनो।

भरतवंशी युधिष्ठिर! तीनों वर्णों में जातकर्म आदि समस्त संस्कारों का विधान है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों के सभी संस्कार वेद-मंत्रों के उच्चारणपूर्वक होने चाहिये। युधिष्ठिर! उपनयन के समय ब्राह्मण को मूंज की, क्षत्रिय को प्रत्यंचा की और वैश्य को शण की मेखला धारण करनी चाहिये। यही धर्म है। ब्राह्मण का दण्ड पलाश का, क्षत्रिय के लिये पीपल का और वैश्य के लिये गूलर का होना चाहिये। युधिष्ठिर! ऐसा ही धर्म है। अब दान देने और दान लेने वाले के धर्माधर्म का वर्णन सुनो।

ब्राह्मण को झूठ बोलने से जो अधर्म या पातक बताया गया है, उससे चौगुना क्षत्रिय को और आठ गुना वैश्य को लगता है। यदि किसी ब्राह्मण ने पहले से ही श्राद्ध का निमंत्रण दे रखा हो तो निमंत्रित ब्राह्मण को दूसरी जगह जाकर भोजन नहीं करना चाहिये। यदि वह करता है तो छोटा समझा जाता है ओर उसे पशुहिंसा के समान पाप लगता है। यदि उसे क्षत्रिय या वैश्य ने पहले से निमंत्रण दे रखा हो और वह कहीं अन्यत्र जाकर भोजन कर ले तो छोटा समझे जाने के साथ ही वह पशुहिंसा के आधे पाप का भागी होता है। नरेश्वर! जो ब्राह्मण ब्राह्मणादि तीनों वर्णों के यहाँ देवयज्ञ अथवा श्राद्ध में स्नान किये बिना ही भोजन करता है, उसे गौ की झूठी शपथ खाने के समान पाप लगता है। राजन! जो ब्राह्मण अपने घर में अशौच रहते हुए भी लोभवश जान-बूझकर दूसरे ब्राह्मण आदि के यहाँ श्राद्ध का अन्न ग्रहण करता है, उसे भी गौ की झूठी शपथ खाने का पाप लगता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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