महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 167 श्लोक 23-39

सप्तषष्ट्यधिकशततम (167) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: सप्तषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद


वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! परम बुद्धिमान कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने पर गंगानन्दन भीष्म जी ने आँखे खोलकर अपने को सब ओर से घेरकर खड़े हुए सम्पूर्ण भरतवंशियों को देखा। फिर प्रवचनकुशल बलवान भीष्म ने युधिष्ठिर की विशाल भुजा हाथ में लेकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में यह समयोचित वचन कहा- ‘कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! सौभाग्‍य की बात है कि तुम मन्त्रियों सहित यहाँ आ गये। सहस्र किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य अब दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर लौट चुके हैं। इन तीखे अग्र भाग वाले बाणों की शय्या पर शयन करते हुए आज मुझे अट्ठावन दिन हो गये, किंतु ये दिन मेरे लिये सौ वर्षों के समान बीते हैं। युधिष्ठिर! इस समय चान्द्रमास के अनुसार माघ का महीना प्राप्त हुआ है। इसका यह शुक्ल पक्ष चल रहा है, जिसका एक भाग बीत चुका है और तीन भाग बाकी है (शुक्ल पक्ष से मास का आरम्भ मानने पर आज माघ शुक्ला अष्टमी प्रतीत होती है)।'

धर्मपुत्र युधिष्ठिर से ऐसा कहकर गंगानन्दन भीष्म ने धृतराष्ट्र को पुकार कर उनसे यह समयोचित वचन कहा- भीष्म जी बोले- राजन! तुम धर्म को अच्‍छी तरह जानते हो। तुमने अर्थतत्त्व का भी भलीभाँति निर्णय कर लिया है। अब तुम्हारे मन में किसी प्रकार का संदेह नहीं है, क्योंकि तुमने अनेक शास्त्रों का ज्ञान रखने वाले बहुत-से विद्वान ब्राह्मणों की सेवा की है। उनके सत्संग से लाभ उठाया है। मनुजेश्वर! तुम चारों वेदों, सम्पूर्ण शास्त्रों और धर्मों का रहस्य पूर्ण रूप से जानते और समझते हो।

कुरुनन्दन! तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। जो कुछ हुआ है, वह अवश्यम्भावी था। तुमने श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी से देवताओं का रहस्य भी सुन लिया है (उसी के अनुसार महाभारत युद्ध की सारी घटनाएँ हुई हैं)। ये पांडव जैसे राजा पांडु के पुत्र हैं, वैसे ही धर्म की दृष्टि से तुम्हारे भी हैं। ये सदा गुरुजनों की सेवा में संलग्‍न रहते हैं। तुम धर्म में स्थित रहकर अपने पुत्रों के समान ही इनका पालना करना। धर्मराज युधिष्ठिर का हृदय बहुत ही शुद्ध है। ये सदा तुम्हारी आज्ञा के अधीन रहेंगे। मैं जानता हूँ, इनका स्वभाव बहुत ही कोमल है और ये गुरुजनों के प्रति बड़ी भक्ति रखते हैं। तुम्हारे पुत्र बड़े दुरात्मा, क्रोधी, लोभी, ईर्ष्या के वशीभूत तथा दुराचारी थे। अत: उनके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! मनीषी धृतराष्ट्र से ऐसा वचन कहकर कुरुवंशी भीष्म ने महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा।

भीष्म जी बोले- भगवन! देवदेवेश्वर! देवता और असुर सभी आपके चरणों मे मस्तक झुकाते हैं। अपने तीन पगों से त्रिलोकी को नापने वाले तथा शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले नारायण देव! आपको नमस्कार है। आप वासुदेव, हिरण्यात्मा, पुरुष, सविता, विराट, अनुरूप, जीवात्मा और सनातन परमात्मा हैं। कमलनयन श्रीकृष्ण! पुरुषोत्तम! वैकुण्ठ! आप सदा मेरा उद्धार करें। अब मुझे जाने की आज्ञा दें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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