पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-43 का हिन्दी अनुवाद
उमा ने पूछा- प्रभो! इन गुणों से युक्त दान दिया गया हो तो क्या वह भी निष्फल हो सकता है? श्रीमहेश्वर ने कहा- महाभागो! मनुष्यों के भाव-दोष से ऐसा भी होता है। यदि कोई विधिपूर्वक धर्म का सम्पादन करके फिर उसके लिये पश्चात्ताप करने लगता है अथवा भरी सभा में उसकी प्रशंसा करते हुए बड़ी-बड़ी बातें बनाने लगता है, उसका वह धर्म व्यर्थ हो जाता है। पुण्य की अभिलाषा रखने वाले दाताओं को चाहिये कि वे इन दोषों को त्याग दें। यह दान सम्बन्धी आचार सनातन है। सत्पुरुषों ने सदा इसका आचरण किया है। दूसरों पर अनुग्रह करने के लिये दान किया जाता है। गृहस्थों पर तो दूसरे प्राणियों का ऋण होता है, जो दान करने से उतरता है, ऐसा मन में समझकर विद्वान पुरुष सदा दान करता रहे। इस तरह दिया हुआ सुकृत सदा महान होता है। सर्वसाधारण द्रव्य का भी इसी तरह दान करने से महान फल की प्राप्ति होती है। उमा ने पूछा- भगवन! मनुष्यों को धर्म के उद्देश्य से किन-किन वस्तुओं का दान करना चाहिये? यह मैं सुनना चाहती हूँ। आप मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! निरन्तर धर्म कार्य तथा नैमित्तिक कर्म करने चाहिये। अन्न, निवास स्थान, दीप, जल, तृण, ईंधन, तेल, गन्ध, ओषधि, तिल और नमक- ये तथा और भी बहुत-सी वस्तुएँ निरन्तर दान करने की वस्तुएँ बतायी गयी हैं। अन्न मनुष्यों का प्राण है। जो अन्न दान करता है, वह प्राणदान करने वाला होता है। अतः मनुष्य विशेष रूप से अन्न का दान करना चाहता है। अनुरूप ब्राह्मण को जो अभीष्ट अन्न प्रदान करता है, वह परलोक में अपने लिये अनन्त एवं उत्तम निधि की स्थापना करता है। रास्ते का थका-माँदा अतिथि यदि घर पर आ जाये तो यत्नपूर्वक उसका आदर-सत्कार करे, क्योंकि वह अतिथि-सत्कार मनोवाञ्छित फल देने वाला यज्ञ है। जिसका पुत्र अथवा पौत्र किसी श्रोत्रिय ब्राह्मण को भोजन कराता है, उसके पितर उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं, जैसे अच्छी वर्षा होने से किसान। चाण्डाल और शूद्रों को भी दिया हुआ अन्नदान निन्दित नहीं होता। अतः ईर्ष्या छोड़कर सब प्रकार के प्रयत्न द्वारा अन्नदान करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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