महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-5

त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोदश अध्याय: 13 भाग-5 का हिन्दी अनुवाद


श्रीभगवान कहा- 'सौम्‍य! तुम यथावत रूप से मेरे तत्‍व का साक्षात्‍कार करने के लिये सचेष्‍ट हो। यह बात मुझे पहले से ही विदित है। तुम्‍हारे पिता ने तुम्‍हें मेरे विषय में जो कुछ ज्ञान दिया है, वह सब कुछ मुझे ज्ञात है। विनतानन्‍दन! किसी को भी किसी तरह मेरे स्‍वरूप का पूर्णत: ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञाननिष्ठ विद्वान ही मेरे विषय में कुछ जान पाते हैं। जो ममता ओर अहंकार से रहित तथा कामनाओं के बन्‍धन से मुक्‍त हैं, वे ही मुझे जान पाते हैं। पक्षिप्रवर! तुम मेरे भक्‍त हो और सदा ही मुझमें मन लगाये रखते हो। इसलिये जगत के कारणरूप में स्थित मेरे स्‍थूलस्‍वरूप का बोध प्राप्‍त करोगे।'

गरुड़ कहते हैं- 'ऋषिशिरोमणियो! इस प्रकार भगवान के अभय देने पर क्षण भर में मेरे खेद, श्रम और भय सब नष्‍ट हो गये। उस समय शीघ्रगामी भगवान अपनी गति से धीरे-धीरे चल रहे थे और मैं महान वेग का आश्रय लेकर उनका अनुसरण करता था। वे अमित तेजस्‍वी एवं आत्‍मतत्‍व के ज्ञाता भगवान श्रीहरि आकाश में बहुत दूत तक का मार्ग तय करके ऐसे देश में जा पहुँचे, जो मन के लिये भी अगम्‍य था। तदनन्‍तर भगवान मन के समान वेग को अपनाकर मुझे मोहित करके वहीं क्षण भर में अदृश्‍य हो गये। वहाँ मेघ के समान धीरे-गम्‍भीर स्‍वर में उच्‍चारित ‘भो’ शब्‍द के द्वारा बोलने में कुशल भगवान इस प्रकार बोले- 'हे गरुड़! यह मैं हूँ।' मैं उसी शब्‍द का अनुसरण करता हुआ उस स्‍थान पर जा पहुँचा। वहाँ मैंने एक सुन्‍दर सरोवर देखा, जिसमें बहुत-से हंस शोभा पा रहे थे। आत्‍मतत्‍व के ज्ञाताओं में सर्वोत्‍तम भगवान नारायण उस सरोवर के पास पहुँचकर ‘भो’ शब्‍द से युक्‍त अनुपम गंभीर स्‍वर से मुझे पुकारते हुए अपने शयन-स्‍थान जल में प्रविष्‍ट हो गये और मुझसे इस प्रकार बोले। श्रीभगवान ने कहा- 'सौम्‍य! तुम भी जल में प्रवेश करो। हम दोनों यहाँ सुख से रहेंगे।'

गरुड़ कहते हैं- 'ऋषियों! तब मैं उन महात्‍मा श्रीहरि के साथ उस सरोवर में घुसा। वहाँ मैंने अत्‍यन्‍त अद्भुत दृश्‍य देखा। भिन्‍न–भिन्न स्‍थानों पर विधिपूर्वक स्‍थापित की हुई प्रज्‍वलित अग्नियाँ बिना ईंधन के ही जल रही थीं ओर घी की आहुति पाकर उद्दीप्त हो उठी थीं। घी न मिलने पर भी उन अग्नियों की दीप्ति घी की आहुति पायी हुई अग्नियों के समान थी और बिना र्इंधन के भी ईंधन युक्‍त आग के तुल्‍य उनकी प्रभा प्रकाशित होती रहती थी।

वहाँ जाने पर भी उन वरदायक देवता नारायण-देव का मुझे दर्शन न हो सका। सहस्रों स्‍थानों में प्रशंसित होने वाले उन अग्निहोत्रों के समीप मैंने उन अद्भुत एवं अविनाशी श्रीहरि को ढूंढना आरम्‍भ किया। इन अग्नियों के समीप अक्षरों का स्‍पष्‍ट उच्‍चारण करने वाले तथा अपने प्रभाव से अदृश्‍य रहने वाले, ऋग्‍वेद, यजुर्वेद और सामवेद के विद्वानों की सुस्‍वर मधुर वाणी मैंने सुनी। उनके पद ओर अक्षर बहुत सुन्‍दर ढंग से उच्‍चारित हो रहे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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