त्रयधिकशततम (103) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयधिकशततम अध्याय: श्लोक 35-45 का हिन्दी अनुवाद
ब्रह्मन! मैंने प्रतिदिन एक-एक करके तीस बार अग्निचयन एवं यजन किया। आठ बार सर्वमेध, सात बार नरमेध और एक सौ अठ्ठाईस बार विश्वजित यज्ञ किया है; परंतु देवेश्वर! उन यज्ञों के फल से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। सरयू, बाहुदा, गंगा और नैमिषारण्य तीर्थ में जाकर मैंने दस लाख गौदान किये हैं; परंतु उनके फल से भी यहाँ आना नहीं हुआ है (केवल अनशन व्रत के प्रभाव से मुझे इस दुर्लभ लोक की प्राप्ति हुई है)। पहले इन्द्र ने स्वयं अनशन व्रत का अनुष्ठान करके इसे गुप्त रखा था। उसके बाद शुक्राचार्य ने तपस्या के द्वारा उसका ज्ञान प्राप्त किया। फिर उन्हीं के तेज से उसका माहात्म्य सर्वत्र प्रकाशित हुआ। सर्वश्रेष्ठ पितामह! मैंने भी अन्त में उसी अनशन व्रत का साधन आरंभ किया। जब उस कर्म की पूर्ति हुई, उस समय मेरे पास हज़ारों ब्राह्मण और ऋषि पधारे। वे सभी मुझ पर बहुत संतुष्ट थे। प्रभो! उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मुझे आज्ञा दी कि ‘तुम ब्रह्मलोक को जाओ।’ भगवन! प्रसन्न हुए उन हज़ारों ब्राह्मणों के आशीर्वाद से मैं इस लोक में आया हूँ। इसमें आप कोई अन्यथा विचार न करें। देवेश्वर! मैंने अपनी इच्छा के अनुसार विधिपूर्वक अनशन व्रत का पालन किया। आप संपूर्ण जगत के विधाता हैं। आपके पूछने पर मुझे सब बातें यथावत रूप से बतानी चाहिये, इसलिये सब-कुछ कह रहा हूँ। मेरी समझ में अनशन व्रत से बढ़कर दूसरी कोई तपस्या नहीं है। आपको नमस्कार है, आप मुझ पर प्रसन्न होइये।' भीष्म जी कहते हैं- राजन! राजा भगीरथ ने जब इस प्रकार कहा, तब ब्रह्मा जी ने शास्त्रोक्त विधि से आदरणीय नरेश का विशेष आदर-सत्कार किया। अत: तुम भी अनशन व्रत से युक्त होकर सदा ब्राह्मण का पूजन करो; क्योंकि ब्राह्मणों के आशीवार्द से इहलोक और परलोक में भी संपूर्ण कामनाएँ सिद्ध होती हैं। अन्न, वस्त्र, गौ तथा सुंदर गृह देकर और कल्याणकारी देवताओं की आराधना करके भी ब्राह्मणों को ही संतुष्ठ करना चाहिये। तुम लोभ छोड़कर इसी परम गोपनीय धर्म का आचरण करो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद विषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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