त्रयधिकशततम (103) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद
ब्रह्मन! पितामह! फिर स्वर्णहार से विभूषित हरे रंग वाले सत्रह करोड़ श्यामकर्ण घोड़े, ईषादण्ड (हरिस) के समान दांतों वाले, स्वर्णमालामण्डित एवं विशाल शरीर वाले सत्रह हज़ार कमलचिह्नयुक्त हाथी तथा सोने के बने हुए दिव्य आभूषणों से विभूषित स्वर्णमय उपकरणों से युक्त और सजे-सजाये घोड़े जुते हुए सत्रह हज़ार रथ दान किये। इनके अतिरिक्त जो भी वस्तुएँ वेदों में दक्षिणा के अवयव रूप से बतायी गयी हैं, उन सबको मैंने दस वाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान करके दान किया था। पितामह! यज्ञ और पराक्रम में जो इन्द्र के समान प्रभावशाली थे, जिनके कण्ठ में सुवर्ण के हार शोभा पा रहे थे, ऐसे हज़ारों राजाओं को युद्ध में जीतकर प्रचुर धन के द्वारा आठ राजसूय यज्ञ करके मैंने उन्हें ब्राह्मणों को दक्षिणा में दे दिया; उस पुण्य से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। जगत्पते! मेरी दी हुई दक्षिणाओं से गंगा नदी आच्छादित हो गयी थी; परंतु उसके कारण भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। उस यज्ञ में मैंने प्रत्येक ब्राह्मण को तीन-तीन बार सोने के सैकड़ों आभूषणों से विभूषित दो-दो हज़ार घोड़े और एक-एक सौ अच्छे गांव दिये थे। पितामह! मिताहारी, मौन और शांत भाव से रहकर मैंने हिमालय पर्वत पर सुदीर्घ काल तक तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी की दु:सह धारा को अपने मस्तक पर धारण किया; परंतु उस तपस्या के फल से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। देव! मैंने अनेक बार ‘शभ्याक्षेप'[1] याग किये। दस हज़ार 'साद्यस्क' यागों का अनुष्ठान किया। कई बार तेरह और बारह दिनों में समाप्त होने वाले याग और ‘पुण्डरीक’ नामक यज्ञ पूर्ण किये; परंतु उनके फलों से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। इतना ही नहीं, मैंने सफेद रंग के ककुद वाले आठ हज़ार वृषभ भी ब्राह्मण को दान में दिये, जिनके एक-एक सींग में सोना मढ़ा हुआ था तथा उन ब्राह्मणों को सुवर्णमय हार विभूषित गौएँ भी मैंने दी थीं। मैंने आलस्यरहित होकर अनेक बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करके उनमें सोने और रत्नों के ढेर, रत्नमय पर्वत, धन्यधान से सम्पन्न हज़ारों गांव और एक बार की ब्यायी हुई सहस्रों गौएँ ब्राह्मण को दान कीं; किंतु उनके पुण्य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। देव! ब्रह्मन! मैंने ग्यारह दिनों में होने वाले और चौबीस दिनों में होने वाले दक्षिणासहित यज्ञ किये। बहुत-से अश्वमेध यज्ञ भी कर डाले तथा सोलह बार आर्कायण यज्ञों का अनुष्ठान किया, परंतु उन यज्ञों के फल से मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। चार कोस लम्बा-चौड़ा एक चंपा के वृक्षों का वन, जिसके प्रत्येक वृक्ष में रत्न जड़े हुए थे, वस्त्र लपेटा गया था और कंठदेश में स्वर्णमाला पहनाई गयी थी, मैंने दान किया है; किंतु उस दान के फल से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। मैं तीस वर्षों तक क्रोधरहित होकर तुरायण नामक दुष्कर व्रत का पालन करता रहा, जिसमें प्रतिदिन नौ सौ गाय ब्राह्मण को दान देता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यज्ञकर्ता पुरुष 'शभ्या' नामक एक काठ का डंडा खूब जोर लगाकर फेंकता है, वह जितनी दूर पर जाकर गिरता है, उतने दूर में यज्ञ की वेदी बनायी जाती है; उस वेदी पर जो यज्ञ किया जाता है, उसे 'शभ्याक्षेप' अथवा 'शभ्याप्रात यज्ञ' कहते हैं।
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