अष्टनवतित (98) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: अष्टनवतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! जब वृष्णिवंश के प्रमुख वीर युयुधान ने आचार्य द्रोण के उस बाण को काट दिया और धृष्टधुम्न को प्राणसंकट से बचा लिया, तब अमर्ष में भरे हुए सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर नरव्याघ्र द्रोणाचार्य ने उस युद्ध स्थल में सात्यकि के प्रति क्या किया। संजय ने कहा–महाराज! उस समय क्रोध और अमर्ष से लाल आंखे किये द्रोणाचार्य ने फुफकारते हुए महानाग के समान बड़े वेग से सात्यकि पर धावा किया। क्रोध ही उस महानाग का विष था, खींचा हुआ धनुष फैलाये हुए मुख के समान जान पड़ता था, तीखी धारवाले बाण दांतों के समान थे और तेज धार वाले नाराच दाढ़ों का काम देते थे। हर्ष में भरे हुए नरवीर द्रोणाचार्य ने अपने महान वेगशाली लाल घोड़ों द्वारा, जो मानो आकाश में उड़ रहे और पर्वत को लांघ रहे थे, सुवर्णमय पंखवाले बाणों की वर्षा करते हुए वहाँ युयुधान पर आक्रमण किया। उस समय द्रोणाचार्य अश्वरुपी वायु से संचालित अनिवार्य मेघ के समान हो रहे थे। बाणों का प्रहार ही उनके द्वारा की जाने वाली महावृष्टि था। रथ की घर्घराहट ही मेघ की गर्जना थी, धनुष का खींचना ही धारावाहिक वृष्टि का साधन था, बहुत से नाराच ही विद्युत के समान प्रकाशित होते थे, उस मेघ ने खंग और शक्तिरुपी अशनि को धारण कर रखा था और क्रोध के वेग से ही उसका उत्थान हुआ था। शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले रणदुर्मद शूरवीर सात्यकि द्रोणाचार्य को अपने उपर आक्रमण करते देख सारथि से जोर-जोर हंसते हुए बोले। ‘सूत! ये शौर्यसम्पन्न ब्राह्मण देवता अपने ब्राह्मणो चित्त कर्म में स्थिर नहीं हैं। ये धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन के आश्रय होकर उसके दु:ख और भय का निवारण करने वाले हैं। समस्त राजकुमारों के ये ही आचार्य हैं और सदा अपने वेग शाली अश्वों द्वारा शीघ्र इनका सामना करने के लिये चलो’। तदनन्तर चांदी के समान श्वेत रंग वाले और वायु के समान वेगशाली सात्यकि के उत्तम घोड़े द्रोणाचार्य के सामने शीघ्रता पूर्वक जा पहुँचे। फिर तो शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोणाचार्य और सात्यकि एक दूसरे पर सहस्त्रों बाणों का प्रहार करते हुए युद्ध करने लगे। उन दोनों पुरुषशिरोमणि वीरों ने आकाश को बाणों के समूह से आच्छादित कर दिया और दसों दिशाओं को बाणों से भर दिया। जैसे वर्षाकाल में दो मेघ एक दूसरे पर जल की धाराएं गिराते हों, उसी प्रकार वे परस्पर बाण वर्षा कर रहे थे। उस समय न तो सूर्य का पता चलता था और न हवा ही चलती। चारों ओर बाणों का जाल-सा बिछ जाने के कारण वहाँ घोर अन्धकार छा गया था। उस समय अन्य शूरवीरों का वहाँ पहुँचना असम्भव-सा हो गया। शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने की कला को जानने वाले द्रोणाचार्य तथा सात्वतवंशी सात्यकि के बाणों से लोक में अन्धकार छा जाने पर उस समय उन दोनों पुरुष सिंह की बाण-वर्षा में कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था। बाणों के परस्पर टकराने से उनकी धारों के आघात प्रत्याघात से जो शब्द होता था, वह इन्द्र के छोडे़ हुए वज्रास्त्रों की गड़गड़ाहट के समान सुनायी पड़ता था। भरतनन्दन! नाराचों से अत्यन्त विद्ध हुए बाणों का स्वरुप विषधर नागों के डंसे सर्पों के समान जान पड़ता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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