विंशत्यधिकशततम (120) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
संजय कहते हैं- राजन! रथियों में श्रेष्ठ युयुधान यवनों और काम्बोजों को पराजित करके आपकी सेना के बीच से होते हुए अर्जुन की ओर चले। पुरुषसिंह सात्यकि के दांत बड़े सुन्दर थे। उनके कवच और ध्वज भी विचित्र थे। वे मृग की गन्ध लेते हुए व्याघ्र के समान आपकी सेना को भयभीत कर रहे थे। युयुधान रथ के द्वारा विभिन्न मार्गों पर विचरते हुए अपने उस महावेगशाली धनुष को जोर-जोर से घुमा रहे थे, जिसका पृष्ठभाग सोने से मढ़ा था और जो सुवर्णमय चन्द्राकार चिह्नों से व्याप्त था। उनके भुजबंद और शिरस्त्राण सुवर्ण के बने हुए थे। वे स्वर्णमय कवच से आच्छादित थे। सोने के ध्वज और धनुष से सुशोभित शूरवीर सात्यकि मेरु पर्वत के शिखर की भाँति शोभा पा रहे थे। युद्धस्थल में मण्डलाकार धनुष धारण किये अपने तेज स्वरुप सूर्यरशिमयों से प्रकाशित, मानव सूर्य सात्यकि शरत काल में उगे हुए सूर्यदेव के समान देदीप्यमान हो रहे थे। उनके कंधे और चाल-ढाल वृषभ के समान थे। नेत्र भी वृषभ के ही तुल्य बड़े-बड़े थे। वे नरश्रेष्ठ सात्यकि आपके सैनिकों के बीच में उसी प्रकार सुशोभित होते थे, जैसे गौओं के झुंड में सांड़ की शोभा होती है। मतवाले हाथी के समान पराक्रमी और मदोन्मत्त गजराज के समान मन्दगति से चलने वाले सात्यकि जब मदस्त्रावी मातगड़ के समान कौरव सैनिकों के मध्य भाग में खड़े हुए, उस समय आपके योद्धा उन्हें मार डालने की इच्छा से भूखे बाघों के समान उन पर टूट पड़े। वे सात्यकि जब द्रोणाचार्य और कृतवर्मा की दुस्तर सेना को लांघकर जलसंधरुपी सिन्धु को पार करके काम्बोजों की सेना का संहारकर कृतवर्मारुपी ग्राह के चंगुल से छूटकर आपकी सेना के समुद्र से पार हो गये, उस समय अत्यन्त क्रोध में भरे हुए आपके रथियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। दुर्योधन, चित्रसेन, दु:शासन, विविंशति, शकुनि, दु:सह, तरुण वीर दुर्धर्ष क्रथ तथा अन्य बहुत से दुर्जय शूरवीर अमर्ष में भरकर अस्त्र-शस्त्र लिये वहाँ आगे बढ़ते हुए सात्यकि के पीछे-पीछे दौड़े। माननीय नरेश। पूर्णिमा के दिन वायु के झकोरों से वेगपूर्वक ऊपर उठने वाले महासागर के समान आपकी सेना में बड़े जोर-जोर से गर्जन-तर्जन का शब्द होने लगा। उन सबको आक्रमण करते देख शिनिप्रवर सात्यकि ने अपने सारथि से हंसते हुए से कहा- ‘सूत। धीरे-धीरे चलो। सूत! यह हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों से भरी हुई जो दुर्योधन सेना युद्ध के लिये उद्यत हो मेरी ही ओर तीव्र वेग से चली आ रही है, इस सेना-समुद्र को मैं इस महान समरांगण में अपने रथ की घर्घराहट से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करता तथा पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं सागरों को भी कंपाता हुआ आगे बढ़ने से रोकूंगा। ठीक उसी तरह, जैसे तट की भूमि पूर्णिमा को उद्धेलित होने वाले महासागर को रोक देती है। सारथे। इस महायुद्ध में देवराज इन्द्र के समान मेरा पराक्रम तुम देखो। मैं अभी-अभी अपने पैने बाणों से शत्रुओं की सेनाओं का संहार कर डालता हूँ। इस युद्धस्थल में मेरे द्वारा मारे गये सहस्त्रों पैदलों, घुड़ सवारों, रथियों और हाथीसवारों को देखना, जिनके शरीर मेरे अग्नि सदृश वाणों द्वारा विदीर्ण होंगे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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