द्वितीय (2) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 16-26 का हिन्दी अनुवाद
मैं तो समझता हूँ, द्रोणाचार्य के मारे जाने पर मेरे सारे सैनिक भाग चले होंगे, शोक के समुद्र में डूब गये होंगे, उनकी दशा समुद्र में नाव मारी जाने पर वहाँ हाथों से तैरने वाले मनुष्यों के समान संकटपूर्ण हो गयी होगी। संजय! जब सारी सेनाएँ भाग गयी, तब दुर्योधन, कर्ण, भोजवंशी, कृतवर्मा, मद्रराज शल्य, द्रोणकुमार अश्वत्थामा, कृपाचार्य, मरने से बचे हुए मेरे पुत्र तथा अन्य लोगों के सुख की कान्ति कैसी हो गयी थी? गवल्गणकुमार! मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों के पराक्रम से सम्बन्ध रखने वाला यह सारा वृतान्त यथार्थ रूप से मुझे कह सुनाओ। संजय ने कहा– माननीय नरेश! आपके अपराध से कौरवों पर जो कुछ बीता है, उसे सुनकर दुःख न मानियेगा; क्योंकि दैववश जो दुःख प्राप्त होता है, उससे विद्वान पुरुष व्यथित नहीं होते हैं। प्रारब्धवश मनुष्य को अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो भी जाती है और नहीं भी होती है। अतः उसकी प्राप्ति हो या न हो, किसी भी दशा में कोई ज्ञानी पुरुष (हर्ष या) कष्ट का अनुभव नहीं करता है। धृतराष्ट्र बोले– संजय! मुझे इससे अधिक कोई व्यथा नहीं होगी, मैं पहले से ही ऐसा मानता हूँ कि यह अवश्यंभावी दैव का विधान है; अतः तुम इच्छानुसार सारा वृतान्त कहो। इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्ण पर्व में धृतराष्ट- संजय संवाद विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अस्त्रों के चार भेद इस प्रकार हैं- मुक्त, अमुक्त, यन्त्र मुक्त तथा मुक्तामुक्त। जो धुनष या हाथ से शत्रु पर फेंके जाते हैं, वे मुक्त कहलाते हैं, जैसे बाण आदि। जिन्हें हाथ में लिये हुए ही प्रहार किया जाता हैं, उन अस्त्रों को अमुक्त कहते है, जैसे तलवार आदि। जो यन्त्र से फेंके जाते हैं, वे यन्त्र मुक्त कहलाते हैं, जैसे गोला आदि। तथा जिस अस्त्र को छोडकर पुनः उसका उपसंहार किया जाता है, अर्थात जो शत्रु पर चोट करके पुनः प्रयोग करने वाले के हाथ में आ जाते हैं, वे मुक्तामुक्त कहलाते हैं, जैसे श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र और इन्द्र का वज्र आदि।
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