एकविंशत्यधिकद्विशततम (221) अध्याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र तथा शान्तनुनन्दन भीष्म की आज्ञा से इन्द्रप्रस्थ में रहते हुए पाण्डवों ने अन्य बहुत से राजाओं को, जो उनके शत्रु थे, मार दिया। धर्मराज युधिष्ठिर का आसरा लेकर सब लोग सुख से रहने लगे, जैसे जीवात्मा पुण्यकर्मों के फलस्वरूप् अपने उत्तम शरीर को पाकर सुख से रहता है। भरतश्रेष्ठ! महाराज युधिष्ठिर नीतिज्ञ पुरुष की भाँति धर्म, अर्थ और काम इन तीनों को आत्मा के समान प्रिय बन्धु मानते हुए न्याय और समतापूर्वक इनका सेवन करते थे। इस प्रकार तुल्यरूप से बँटे हुए धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थ भूतल पर मानो मूर्तिमान होकर हो रहे थे और राजा युधिष्ठिर चौथे पुरुषार्थ मोक्ष की भाँति सुशोभित होते थे। प्रजा ने महाराज युधिष्ठिर के रूप में ऐसा राजा पाया था, जो परमब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करने वाला, बड़े बडे़ यज्ञों में वेदों का उपयोग करने वाला और शुभ लोकों के संरक्षण में तत्पर रहने वाला था। राजा युधिष्ठिर के द्वारा दूसरे राजाओं की चंचल लक्ष्मी भी स्थिर हो गयी, बुद्धि उत्तम निष्ठा वाली हो गयी और सम्पूर्ण धर्म की दिनों दिन वृद्धि होने लगी। जैसे यथावसर उपयोग में लाये जाने वाले चारों वेदों के द्वारा विस्तारपूर्वक आरम्भ किया हुआ महायज्ञ शोभा पाता है, उसी प्रकार अपनी आज्ञा के अधीन रहने वाले चारों भाईयों के साथ राजा युधिष्ठिर अत्यन्त सुशोभित होते थे। जैसे बृहस्पतिवार- सदृश मुख्य-मुख्य देवता प्रजापति की सेवा में उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार धौम्य आदि ब्राह्मण राजा युधिष्ठिर को सब ओर से घेरकर बैठते थे। निर्मल एवं पूर्ण चन्द्रमा के समान आनन्दप्रद राजा युधिष्ठिर के प्रति अत्यन्त प्रीति होने के कारण उन्हें देखकर प्रजा के नेत्र और मन एक साथ प्रफुल्लित हो उठते थे। प्रजा केवल उनके पालनरूप् राजोचित कर्म से ही संतुष्ट नहीं थी, वह उनके प्रति श्रद्धा और भक्तिभाव रखने के कारण भी सदा आनन्दित रहती थीे। राजा के प्रति प्रजा की भक्ति इसलिये थी कि प्रजा के मन को जो प्रिय लगता था, राजा युधिष्ठिर उसी को क्रिया द्वारा पूर्ण करते थे। सदा मीठी बातें करने वाले बुद्धिमान, कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर के मुख से कभी कोई अनुचित, असत्य, असह्य और अप्रिय बात नहीं निकलती थी। भरतश्रेष्ठ! महातेजस्वी राजा युधिष्ठिर सब लोगों का और अपना भी हित करने की चेष्टा में लगे रहकर सदा प्रसन्नतापूर्वक समय बिताते थे। इस प्रकार सभी पाण्डव अपने तेज से दूसरे नरेशों को संतप्त करते हुए निश्चिन्त तथा आनन्दमग्न होकर वहाँ निवास करते थे। तदनन्तर कुछ दिनों के बाद अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा- ‘कृष्ण! बड़ी गरमी पड़ रही है। चलिये, यमुना जी में स्नान के लिये चलें। मधुसूदन! मित्रों के साथ वहाँ जलविहार करके हमलोग शाम तक लौट आयेंगे। जनार्दन! यदि आपकी रुचि हो तो चलें।' वासुदेव बोले - कुन्तीनन्दन! मेरी भी ऐसी ही इच्छा हो रही है कि हम लोग सुहृदों के साथ वहाँ चलकर सुखपूर्वक जलविहार करें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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