महाभारत आदि पर्व अध्याय 221 श्लोक 17-33

एकविंशत्यधिकद्विशततम (221) अध्‍याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

Prev.png

महाभारत: आदि पर्व: एकविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते है- भारत! यह सलाह करके युधिष्ठिर की आज्ञा से अर्जुन और श्रीकृष्ण सुहृदों के साथ वहाँ गये। यमुना के तट पर जहाँ विहारस्थान था, वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्ण और अर्जुन के रनिवास की स्त्रियाँ नाना प्रकार के सुन्दर रत्नों के साथ क्रीड़ाभवन के भीतर चली गयीं। वह उत्तम विहार भूमि नाना प्रकार के वृक्षों से सुशोभित थी। वहाँ बने हुए अनेक छोटे-बडे़ भवनों के कारण वह स्थान इन्द्रपुरी के समान सुशोभित होता था। अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ अनेक प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, बहुमूल्य सरस पेय, भाँति-भाँति के पुष्पहार और सुगन्धित द्रव्य भी थे। भारत! वहाँ जाकर सब लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार जलक्रीड़ा करने लगे। विशाल नितम्बों और मनोहर पीन उरोजों वाली वामलोचना वनिताएँ भी यौवन के मद के कारण डगमगाती चाल से चलकर इच्छानुसार क्रीड़ाएँ करने लगीं। वे स्त्रियाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन की रुचि के अनुसार कुछ वन में, कुछ जल में और कुछ घरों में यथोचित रूप से क्रीड़ा करने लगीं। महाराज! उस समय यौवनमद से युक्त द्रौपदी और सुभद्रा ने बहुत से वस्त्र और आभूषण बाँटे। वहाँ कुछ श्रेष्ठ स्त्रियाँ हर्षोल्लास में भरकर नृत्य करने लगीं! कुछ जोर-जोर से कोलाहल करने लगीं।

अन्य बहुत सी स्त्रियाँ ठठाकर हँसने लगीं तथा कुछ सुन्दरी स्त्रियाँ गीत गाने लगीं। कुछ एक दूसरे को पकड़कर रोकने और मृदु प्रहार करने लगीं तथा कुछ दूसरी स्त्रियाँ एकान्त में बैठकर आपस में कुछ गुप्त बातें करने लगीं। वहाँ का राजभवन और महान् समृद्धिशाली वन वीणा, वेणु और मृदंग आदि मनोहर वाद्यों की सुमधुर ध्वनि से सब ओर गूँजने लगा। इस प्रकार जब वहाँ क्रीड़ा विहार का आनन्दमय उत्सव चल रहा था, उसी समय श्रीकृष्ण और अर्जुन पास के ही किसी अत्यन्त मनोहर प्रदेश में गये। राजन्! वहाँ जाकर शत्रुओं की राजधानी को जीतने वाले वे दोनों महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन दो बहुमूल्य सिंहासनों पर बैठे और पहले किये हुए पराक्रमों तथा अन्य बहुत सी बातों की चर्चा करके आमोद-प्रमोद करने लगे। वहाँ प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए धनंजय और वासुदेव स्वर्गलोक में स्थित अश्विनीकुमारों की भाँति सुशोभित हो रहे थे। उसी समय उन दोनों के पास एक ब्राह्मण देवता आये। वे विशाल शालवृक्ष के समान ऊँचे थे। उनकी कान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान थी। उनके सारे अंग नीले और पीले रंग के थे, दाढ़ी-मूँछें अग्निज्वाला के समान पीत वर्ण की थी तथा ऊँचाई के अनुसार ही उनकी मोटाई थी। वे प्रातःकालिक सूर्य के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। वे चीर वस्त्र पहने और मस्तक पर जटा धारण किये हुए थे। उनका मुख कमलदल के समान शोभा पा रहा था। उनकी प्रभा पिंगलवर्ण की थी और वे अपने तेज से मानो प्रज्वलित हो रहे थे। वे तेजस्वी द्विजश्रेष्ठ जब निकट आ गये, तब अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण तुरंत ही आसन से उठकर खड़े हो गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाह पर्व में ब्राह्मणरूपी अग्निदेव के आगमन से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः