"महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 18-32" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
कीचक बोला- भद्रे!  भीरु!  तुम जैसा ठीक समझती हो, वैसा ही करूँगा। शोभने!  मैं तुमसे मिलने के लिये अकेला ही नृत्यशाला में आऊँगा। सुश्रोणि!  यह बात मैं अपने पुण्य की शपथ खाकर कहता हूँ। वरवर्णिनी!  मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे गन्धर्वों को तुम्हारे विषय में कुछ भी पता न लगे। मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम्हें गन्धर्वों से कोई भय नहीं है।
 
  
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार कीचक के साथ बात करने के बाद द्रौपदी को अवशिष्ट आधा दिन (भीमसेन से यह बात निवेदन करने की प्रतीक्षा में) एक महीने के समान भारी मालूम हुआ। इधर कीचक महान् हर्ष में भरा हुआ अपने घर को गया। उस मूर्ख को यह पता नहीं था कि सैरन्ध्री के रूप में मेरी मृत्यु आ रही है। वह तो काम से मोहित हो रहा था, अतः घर जाकर शीघ्र ही आने आपको (गहने-कपड़ों से) सजाने लगा। वह विशेषतः सुगन्धित पदार्थों, आभूषणों तथा मालाओं के सेवन में संलग्न रहा। मन-ही-मन विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी का बारंबार चिन्तन करते हुए श्रृंगार धारण करते समय कीचक को वह थोड़ा सा समय भी उत्कण्डावश बहुत बड़ा सा प्रतीत हुआ।। वास्तव में जो सदा के लिये राजलक्ष्मी से वियुक्त होने वाला है, उस कीचक की भी उस समय श्रृंगार आदि धारण करने से श्री (शोभा) बहुत बढ़ गयी थी। ठीक उसी तरह, जैसे बुझने के समय बत्ती को भी जला देने की इच्छा वाले दीपक की प्रभा विशेष बढ़ जाती है। काममोहित कीचक ने द्रौपदी की बात पर पूरा विश्वास कर लिया था; अतः उसके समागम सुख का चिन्तन करते-करते उसे यह भी पता न चला कि दिन कब बीत गया।।
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[[कीचक]] बोला- भद्रे! भीरु! तुम जैसा ठीक समझती हो, वैसा ही करूँगा। शोभने! मैं तुमसे मिलने के लिये अकेला ही नृत्यशाला में आऊँगा। सुश्रोणि! यह बात मैं अपने पुण्य की शपथ खाकर कहता हूँ। वरवर्णिनी! मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे गन्धर्वों को तुम्हारे विषय में कुछ भी पता न लगे। मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम्हें गन्धर्वों से कोई भय नहीं है।
  
तदनन्तर कल्याण स्वरूपा द्रौपदी पाकशाला में अपने पति करुनन्दन भीमसेन के पास गयी। वहाँ सुन्दर लटों वाली कृष्णा ने कहा- ‘शत्रुतापन!  जैसा तुमने कहा था, उसके अनुसार मैंने कीचक को नृत्यशाला में मिलने का संकेत कर दिया है। ‘अतः महाबाहो!  कीचक रात के समय उस सूनी नृत्यशाला में अकेला आयेगा। तुम वहीं उसे मार डालना। ‘कुन्तीकुमार!  पाण्डुनन्दन!  तुम नृत्यशाला में जाकर उस मदोन्मत्त सूतपुत्र कीचक को प्राणशून्य कर दो। ‘प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ वीर!  वह सूतपुत्र अपनी वीरता के घमंउ में आकर गन्धर्वों की अवहेलना करता है; अतः जलाशय से सर्प की भाँतिउसे तुम इस जगत् से निकाल फेंको।। ‘भारत!  तुमहारा कल्याण हो। तुम कीचक को मारकर मुझ दुःखपीडित्रत अबला के आँसू पोंछो तथा अपना और अपने कुल का सम्मान बढ़ाओ’।
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वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार कीचक के साथ बात करने के बाद [[द्रौपदी]] को अवशिष्ट आधा दिन ([[भीम|भीमसेन]] से यह बात निवेदन करने की प्रतीक्षा में) एक महीने के समान भारी मालूम हुआ। इधर कीचक महान् हर्ष में भरा हुआ अपने घर को गया। उस मूर्ख को यह पता नहीं था कि सैरन्ध्री के रूप में मेरी मृत्यु आ रही है। वह तो काम से मोहित हो रहा था, अतः घर जाकर शीघ्र ही अपने आपको (गहने-कपड़ों से) सजाने लगा। वह विशेषतः सुगन्धित पदार्थों, आभूषणों तथा मालाओं के सेवन में संलग्न रहा। मन-ही-मन विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी का बारंबार चिन्तन करते हुए श्रृंगार धारण करते समय कीचक को वह थोड़ा-सा समय भी उत्कण्ठावश बहुत बड़ा-सा प्रतीत हुआ।। वास्तव में जो सदा के लिये राजलक्ष्मी से वियुक्त होने वाला है, उस कीचक की भी उस समय श्रृंगार आदि धारण करने से श्री (शोभा) बहुत बढ़ गयी थी। ठीक उसी तरह, जैसे बुझने के समय बत्ती को भी जला देने की इच्छा वाले दीपक की प्रभा विशेष बढ़ जाती है। काममोहित कीचक ने द्रौपदी की बात पर पूरा विश्वास कर लिया था; अतः उसके समागम सुख का चिन्तन करते-करते उसे यह भी पता न चला कि दिन कब बीत गया।।
  
भीमसेन बोले- वरारोहे! तुम्हारा स्वागत है; क्योंकि तुमने मुझे प्रिय संवाद सुनाया है। सुन्दरी! मैं इस कार्य में दूसरे किसी को सहायक बनाना नहीं चाहता। वरवर्णिनी! कीचक से मिलने के लिये तुमने जो शुभ संवाद दिया है और इसे सुनकर मुझे जितनी प्रसन्नता हुई है, ऐसी प्रसन्नता मुझे हिडिम्बासुर को मारकर प्राप्त हुई थी।। में सत्य, धर्म और भाइयों को आगे करके - उनकी शपथ खाकर तुमसे कहता हूँ, जैसे देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था, उसी प्रकार में भी कीचक का वध कर डालूँगा।
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तदनन्तर कल्याणस्वरूपा [[द्रौपदी]] पाकशाला में अपने पति कुरुनन्दन भीमसेन के पास गयी। वहाँ सुन्दर लटों वाली कृष्णा ने कहा- ‘शत्रुतापन! जैसा तुमने कहा था, उसके अनुसार मैंने [[कीचक]] को नृत्यशाला में मिलने का संकेत कर दिया है। अतः महाबाहो! कीचक रात के समय उस सूनी नृत्यशाला में अकेला आयेगा। तुम वहीं उसे मार डालना। कुन्तीकुमार! पाण्डुनन्दन! तुम नृत्यशाला में जाकर उस मदोन्मत्त सूतपुत्र कीचक को प्राणशून्य कर दो। प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ वीर! वह सूतपुत्र अपनी वीरता के घमंड में आकर गन्धर्वों की अवहेलना करता है; अतः जलाशय से सर्प की भाँति उसे तुम इस जगत् से निकाल फेंको। भारत! तुमहारा कल्याण हो। तुम कीचक को मारकर मुझ दुःख पीड़ित अबला के आँसू पोंछो तथा अपना और अपने कुल का सम्मान बढ़ाओ’।
  
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भीमसेन बोले- वरारोहे! तुम्हारा स्वागत है; क्योंकि तुमने मुझे प्रिय संवाद सुनाया है। सुन्दरी! मैं इस कार्य में दूसरे किसी को सहायक बनाना नहीं चाहता। वरवर्णिनी! कीचक से मिलने के लिये तुमने जो शुभ संवाद दिया है और इसे सुनकर मुझे जितनी प्रसन्नता हुई है, ऐसी प्रसन्नता मुझे हिडिम्बासुर को मारकर प्राप्त हुई थी। मैं सत्य, धर्म और भाइयों को आगे करके-उनकी शपथ खाकर तुमसे कहता हूँ, जैसे [[इन्द्र|देवराज इन्द्र]] ने वृत्रासुर को मारा था, उसी प्रकार में भी [[कीचक]] का वध कर डालूँगा।
 
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[[चित्र:Next.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 33-50|]]
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14:53, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण

द्वाविंश (22) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद


कीचक बोला- भद्रे! भीरु! तुम जैसा ठीक समझती हो, वैसा ही करूँगा। शोभने! मैं तुमसे मिलने के लिये अकेला ही नृत्यशाला में आऊँगा। सुश्रोणि! यह बात मैं अपने पुण्य की शपथ खाकर कहता हूँ। वरवर्णिनी! मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे गन्धर्वों को तुम्हारे विषय में कुछ भी पता न लगे। मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम्हें गन्धर्वों से कोई भय नहीं है।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार कीचक के साथ बात करने के बाद द्रौपदी को अवशिष्ट आधा दिन (भीमसेन से यह बात निवेदन करने की प्रतीक्षा में) एक महीने के समान भारी मालूम हुआ। इधर कीचक महान् हर्ष में भरा हुआ अपने घर को गया। उस मूर्ख को यह पता नहीं था कि सैरन्ध्री के रूप में मेरी मृत्यु आ रही है। वह तो काम से मोहित हो रहा था, अतः घर जाकर शीघ्र ही अपने आपको (गहने-कपड़ों से) सजाने लगा। वह विशेषतः सुगन्धित पदार्थों, आभूषणों तथा मालाओं के सेवन में संलग्न रहा। मन-ही-मन विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी का बारंबार चिन्तन करते हुए श्रृंगार धारण करते समय कीचक को वह थोड़ा-सा समय भी उत्कण्ठावश बहुत बड़ा-सा प्रतीत हुआ।। वास्तव में जो सदा के लिये राजलक्ष्मी से वियुक्त होने वाला है, उस कीचक की भी उस समय श्रृंगार आदि धारण करने से श्री (शोभा) बहुत बढ़ गयी थी। ठीक उसी तरह, जैसे बुझने के समय बत्ती को भी जला देने की इच्छा वाले दीपक की प्रभा विशेष बढ़ जाती है। काममोहित कीचक ने द्रौपदी की बात पर पूरा विश्वास कर लिया था; अतः उसके समागम सुख का चिन्तन करते-करते उसे यह भी पता न चला कि दिन कब बीत गया।।

तदनन्तर कल्याणस्वरूपा द्रौपदी पाकशाला में अपने पति कुरुनन्दन भीमसेन के पास गयी। वहाँ सुन्दर लटों वाली कृष्णा ने कहा- ‘शत्रुतापन! जैसा तुमने कहा था, उसके अनुसार मैंने कीचक को नृत्यशाला में मिलने का संकेत कर दिया है। अतः महाबाहो! कीचक रात के समय उस सूनी नृत्यशाला में अकेला आयेगा। तुम वहीं उसे मार डालना। कुन्तीकुमार! पाण्डुनन्दन! तुम नृत्यशाला में जाकर उस मदोन्मत्त सूतपुत्र कीचक को प्राणशून्य कर दो। प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ वीर! वह सूतपुत्र अपनी वीरता के घमंड में आकर गन्धर्वों की अवहेलना करता है; अतः जलाशय से सर्प की भाँति उसे तुम इस जगत् से निकाल फेंको। भारत! तुमहारा कल्याण हो। तुम कीचक को मारकर मुझ दुःख पीड़ित अबला के आँसू पोंछो तथा अपना और अपने कुल का सम्मान बढ़ाओ’।

भीमसेन बोले- वरारोहे! तुम्हारा स्वागत है; क्योंकि तुमने मुझे प्रिय संवाद सुनाया है। सुन्दरी! मैं इस कार्य में दूसरे किसी को सहायक बनाना नहीं चाहता। वरवर्णिनी! कीचक से मिलने के लिये तुमने जो शुभ संवाद दिया है और इसे सुनकर मुझे जितनी प्रसन्नता हुई है, ऐसी प्रसन्नता मुझे हिडिम्बासुर को मारकर प्राप्त हुई थी। मैं सत्य, धर्म और भाइयों को आगे करके-उनकी शपथ खाकर तुमसे कहता हूँ, जैसे देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था, उसी प्रकार में भी कीचक का वध कर डालूँगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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