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− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व एकोनविंश अध्यायः श्लोक 15-31 | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व एकोनविंश अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद</div> |
− | कुन्तीनन्दन! | + | कुन्तीनन्दन! जो असीम आत्मबल से सम्पन्न है, जिसने [[खाण्डववन]] में साक्षात् अग्निदेव को तृप्त किया था, वही वीर [[अर्जुन]] आज कुएँ में पड़ी हुई अग्नि की तरह अन्तःपुर में छिपा हुआ है। जो पुरुषों में श्रेष्ठ है, जिससे शत्रुओं को सदा ही भय प्राप्त होता आया है, वही धनंजय आज लोकनिन्दित नपुंसक वेष में रह रहा है। जिसकी परिघ (लोदण्ड) के समान मोटी भुजाएँ प्रत्यन्चा खींचते-खींचते कठोर हो गयी थीं, वही धनंजय आज हाथों में चूड़ियाँ पहनकर दुःख भोग रहा है। जिसके धनुष की टंकार से समस्त शत्रु थर्रा उठते थे, आज अन्तःपुर की स्त्रियाँ उसी के गीतों की ध्वनि सुनती और प्रसन्न होती हैं। जिसके मस्तक पर सूर्य के समान तेजस्वी किरीट शोभा पाता था, सिर पर चोटी धारण करने के कारण उसी अर्जुन के केशों की शोभा बिगड़ गयी है। |
− | जिस महात्मा में सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रतिष्ठित हैं तथा जो समस्त विद्याओं का आधार है, वह आज कानों में (स्त्रियों की भाँति) कुण्डल धारण करता है। जैसे महासागर तट सीमा को नहीं लाँघ पाता, उसी प्रकार सहस्रों अप्रतिम तेज वाले राजा जिस वीर को वशीभूत करने के लिये आगे न बढ़ सके, वही तरुण अर्जुन इस समय राजा विराट की कन्याओं को नाचना सिखा रहा है और हीजड़े के वेष में छिपकर | + | [[भीम]]! भयंकर [[गाण्डीव धनुष]] धारण करने वाले वीर अर्जुन को अपने सिर पर केशों की चोटी धारण किये कन्याओं से घिरा देख मेरा हृदय विषाद से भर जाता है। जिस महात्मा में सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रतिष्ठित हैं तथा जो समस्त विद्याओं का आधार है, वह आज कानों में (स्त्रियों की भाँति) कुण्डल धारण करता है। जैसे महासागर तट सीमा को नहीं लाँघ पाता, उसी प्रकार सहस्रों अप्रतिम तेज वाले राजा जिस वीर को वशीभूत करने के लिये आगे न बढ़ सके, वही तरुण [[अर्जुन]] इस समय राजा [[विराट]] की कन्याओं को नाचना सिखा रहा है और हीजड़े के वेष में छिपकर उन कन्याओं की सेवा करता है। भीमसेन! जिसके रथ की घर्घराहट से पर्वत, वन और चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी काँप उठती थी, जिस महान् भाग्यशाली पुत्र के उत्पन्न होने पर माता [[कुन्ती]] का सारा शोक नष्ट हो गया था, वही तुम्हारा छोटा भाई अर्जुन आज अपनी दुरवस्था के कारण मुझे शोकमग्न किये देता है। |
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+ | अर्जुन को स्त्रीजनोचित आभूषणों तथा सुवर्णमय कुण्डलों से विभूषित हो हाथों में शंख की चूड़ियाँ धारण किये आते देख मेरा हृदय दुःखित हो जाता है। इस भूतल पर जिसके बल-पराक्रम की समानता करने वाला कोई धनुर्धर वीर नहीं है, वही धनंजय आज राजकन्याओं के बीच बैठकर गीत गाया करता है। धर्म, शूरवीरता और सत्यभाषण में जो सम्पूर्ण जीव-जगत् के लिये एक आदर्श था, उसी अर्जुन को अब स्त्रिवेष में विकृत हुआ देखकर मेरा हृदय शोक में डूब जाता है। हथिनियों से घिरे हुए गण्डस्थल से मधु की धारा बहाने वाले गजराज की भाँति जब वाद्ययन्त्रों के बीच में बैठे हुए देवरूपधारी कुन्तीनन्दन अर्जुन को (नृत्यशाला में) कन्याओं से घिरकर धनपति मत्स्यराज [[विराट]] की सेवा में उपस्थित देखती हूँ, उस समय मेरी आँखों में अँधेरा छा जाता है; मुझे दिशाएँ नहीं सूझती हैं। निश्चय ही मेरी सास कुन्ती नहीं जानती होंगी कि मेरा पुत्र [[धनंजय]] ऐसे संकट में पड़ा है और खोटे जूए के खेल में आसक्त कुरुवंशशिरोमणि अजातशत्रु [[यधिष्ठिर]] भी शोक में डूबे हुए हैं। | ||
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12:38, 31 मार्च 2018 का अवतरण
एकोनविंश (19) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)
महाभारत: विराट पर्व एकोनविंश अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद
भीम! भयंकर गाण्डीव धनुष धारण करने वाले वीर अर्जुन को अपने सिर पर केशों की चोटी धारण किये कन्याओं से घिरा देख मेरा हृदय विषाद से भर जाता है। जिस महात्मा में सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रतिष्ठित हैं तथा जो समस्त विद्याओं का आधार है, वह आज कानों में (स्त्रियों की भाँति) कुण्डल धारण करता है। जैसे महासागर तट सीमा को नहीं लाँघ पाता, उसी प्रकार सहस्रों अप्रतिम तेज वाले राजा जिस वीर को वशीभूत करने के लिये आगे न बढ़ सके, वही तरुण अर्जुन इस समय राजा विराट की कन्याओं को नाचना सिखा रहा है और हीजड़े के वेष में छिपकर उन कन्याओं की सेवा करता है। भीमसेन! जिसके रथ की घर्घराहट से पर्वत, वन और चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी काँप उठती थी, जिस महान् भाग्यशाली पुत्र के उत्पन्न होने पर माता कुन्ती का सारा शोक नष्ट हो गया था, वही तुम्हारा छोटा भाई अर्जुन आज अपनी दुरवस्था के कारण मुझे शोकमग्न किये देता है। अर्जुन को स्त्रीजनोचित आभूषणों तथा सुवर्णमय कुण्डलों से विभूषित हो हाथों में शंख की चूड़ियाँ धारण किये आते देख मेरा हृदय दुःखित हो जाता है। इस भूतल पर जिसके बल-पराक्रम की समानता करने वाला कोई धनुर्धर वीर नहीं है, वही धनंजय आज राजकन्याओं के बीच बैठकर गीत गाया करता है। धर्म, शूरवीरता और सत्यभाषण में जो सम्पूर्ण जीव-जगत् के लिये एक आदर्श था, उसी अर्जुन को अब स्त्रिवेष में विकृत हुआ देखकर मेरा हृदय शोक में डूब जाता है। हथिनियों से घिरे हुए गण्डस्थल से मधु की धारा बहाने वाले गजराज की भाँति जब वाद्ययन्त्रों के बीच में बैठे हुए देवरूपधारी कुन्तीनन्दन अर्जुन को (नृत्यशाला में) कन्याओं से घिरकर धनपति मत्स्यराज विराट की सेवा में उपस्थित देखती हूँ, उस समय मेरी आँखों में अँधेरा छा जाता है; मुझे दिशाएँ नहीं सूझती हैं। निश्चय ही मेरी सास कुन्ती नहीं जानती होंगी कि मेरा पुत्र धनंजय ऐसे संकट में पड़ा है और खोटे जूए के खेल में आसक्त कुरुवंशशिरोमणि अजातशत्रु यधिष्ठिर भी शोक में डूबे हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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