महाभारत वन पर्व अध्याय 207 श्लोक 79-95

सप्‍ताधिकद्विशततम (207) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्‍ताधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 79-95 का हिन्दी अनुवाद


जो तीनों वेदों के विद्वानों में श्रेष्‍ठ, पवित्र, सदाचारी, मनस्‍वी, गुरुसेवक और जितेन्द्रिय हैं, वे शिष्‍टाचारी कहे जाते हैं। जो सत्त्वगुण से सम्पन्न हैं, जिनके आचार और कर्म पापियों के लिये कठिन हैं तथा जो संसार में अपने सत्‍कर्मों के द्वारा सत्‍कृत हैं, उनके हिंसा आदि दोष स्‍वत: नष्‍ट हो जाते हैं। जिसका श्रेष्‍ठ पुरुषों ने पालन किया है, जो अनादि, सनातन और नित्‍य है, उस धर्म को धर्मदृष्टि से ही देखने वाले मनीषी पुरुष स्‍वर्गलोक में जाते हैं। जो आस्तिक, अहंकारशून्‍य, ब्राह्मणों का समादर करने वाले, विद्वान और सदाचार से सम्‍पन्न हैं, वे श्रेष्‍ठ पुरुष स्‍वर्ग में निवास करते हैं। जिसका वेदों में वर्णन है, वह धर्म का पहला लक्षण है। धर्मशास्‍त्रों में जिसका प्रतिपादन किया गया है, वह धर्म का दूसरा लक्षण है और शिष्‍टाचार धर्म का तीसरा लक्षण है। इस प्रकार शिष्‍ट पुरुषों ने धर्म के तीन लक्षण स्‍वीकार किये हैं। सब विद्याओं का अध्‍ययन, सब तीर्थों में स्‍नान, क्षमा, सत्‍य, सरलता और शौच (पवित्रता) ये श्रेष्‍ठ पुरुषों के आचार को लक्षित कराने वाले हैं। जो समस्‍त प्राणियों पर दया करते, सदा अहिंसा-धर्म के पालन में तत्‍पर रहते और कभी किसी से कटु वचन नहीं बोलते, ऐसे संत सदा समस्‍त द्विजों के प्रिय होते हैं।

जो शुभ और अशुभ कर्मों के फलसंचय से सम्‍बन्‍ध रखने वाले परिणाम को जानते हैं, वे शिष्‍ट कहे गये हैं और शिष्‍ट पुरुषों में उनका समादर होता है। जो न्‍यायपरायण, सद्गुणसम्‍पन्न, सब लोगों का हित चाहने वाले, हिंसारहित और सन्‍मार्ग पर चलने वाले हैं, वे श्रेष्‍ठ पुरुष स्‍वर्गलोक पर विजय पाते हैं। जो सबको दान देने वाले, अपने कुटुम्‍बीजनों में प्रत्‍येक वस्‍तु को समान रूप से बांटकर उसका उपयोग करने वाले, दीनजनों पर कृपाभाव बनाये रखने वाले, शास्‍त्रज्ञान के धनी, सबके लिये समादरणीय, तपस्‍वी और समस्‍त प्राणियों के प्रति दयालु हैं, वे श्रेष्‍ठ पुरुषों द्वारा सम्‍मानित शिष्‍ट कहे गये हैं। जो दान से अवशिष्‍ट वस्‍तु का उपयोग करने वाले हैं, वे श्रेष्‍ठ पुरुष इस लोक में सम्‍पत्ति और परलोक में सुखमय लोक प्राप्‍त करते हैं। शिष्‍ट पुरुषों के पास जब उत्तम पुरुष कुछ मांगने के लिये पधारते हैं, उस समय वे अपनी स्‍त्री तथा कुटुम्‍बीजनों को कष्‍ट देकर भी मनोयोगपूर्वक अपनी शक्ति से अधिक दान देते हैं।

न्‍यायपूर्वक लोकयात्रा का निर्वाह कैसे हो धर्म की रक्षा और आत्‍मा का कल्‍याण किस प्रकार हो, इन्‍हीं बातों की ओर उनकी दृष्टि रहती है। ऐसा बर्ताव करने वाले संत पुरुष अनन्‍त काल तक उन्नति की ओर अग्रसर होते रहते हैं। जो अहिंसा, सत्‍यभाषण, कोमलता, सरलता, अद्रोह, अहंकार का त्‍याग, लज्‍जा, क्षमा, शम, दम-इन गुणों से युक्‍त बुद्धिमान्, धैर्यवान्, समस्‍त प्राणियों पर अनुग्रह करने वाले तथा राग-द्वेष से रहित हैं, वे संत सम्‍पूर्ण लोकों के लिये प्रमाणभूत हैं। श्रेष्‍ठ पुरुष तीन ही पद बताते हैं-किसी से द्रोह न करे, दान करे और सदा सत्‍य ही बोले। यह श्रेष्‍ठ पुरुषों का सर्वोत्तम व्रत है। जो सर्वत्र दया करते हैं, जिनके हृदय में करुणा की अनुभूति होती है, वे श्रेष्‍ठ पुरुष इस लोक में अत्‍यन्‍त संतुष्‍ट रहकर धर्म के उत्तम पथ पर चलते हैं। जिन्‍होंने धर्म को अपनाये रखने का दृढ़ निश्‍चय कर लिया है, वे ही महात्मा सदाचारी हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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