महाभारत वन पर्व अध्याय 207 श्लोक 63-78

सप्‍ताधिकद्विशततम (207) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्‍ताधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 63-78 का हिन्दी अनुवाद


जो काम, क्रोध, लोभ, दम्‍भ और कुटिलता को वश में करके केवल धर्म को ही अपनाकर संतुष्‍ट रहते हैं, वे शिष्‍ट कहलाते हैं और उन्हीं का शिष्‍ट पुरुष आदर करते हैं। वे निरन्‍तर यज्ञ और स्‍वाध्‍याय में लगे रहते हैं। उनमें स्‍वेच्‍छाचार नहीं होता। सदाचार का पालन शिष्‍ट पुरुषों का दूसरा लक्षण है। ब्रह्मन! शिष्‍टाचारी पुरुषों में गुरु की सेवा, सत्‍यभाषण, क्रोध का अभाव तथा दान-ये चार सधुण सदा रहते हैं। मनुष्‍य शिष्‍ट पुरुषों के उपर्युक्‍त आचार में मन को सब प्रकार से स्‍थापित करके जिस उत्तम स्थिति को प्राप्‍त करता है, उसकी उप‍लब्धि और किसी प्रकार से नहीं हो सकती। वेद का सार है सत्‍य, सत्‍य का सार है इन्द्रिय-संयम और इन्द्रिय-संयम का सार है त्‍याग। यह त्‍याग शिष्‍ट पुरुषों के आचार में सदा विद्यमान रहता है। जो मनुष्‍य बुद्धिमोह से युक्‍त होकर धर्म में दोष देखते हैं, उनके पीछे चलने वाला मनुष्‍य भी कष्‍ट पाता है। जो शिष्‍ट हैं, वे सदा ही नियमित जीवन व्‍यतीत करते हैं, वेदों के स्‍वाध्‍याय में त्‍त्‍पर और त्‍यागी होते हैं। धर्म के मार्ग पर ही चलते हैं और सत्‍य धर्म को ही अपना परम आश्रय मानते हैं।

शिष्‍टाचारपरायण मनुष्‍य अपनी उत्तम बुद्धि को भी संयम में रखते हैं, गुरु के सिद्धांत के अनुसार चलते हैं और मर्यादा में स्थित होकर धर्म और अर्थ पर दृष्टि रखते हैं। इसलिये तुम नास्तिक, धर्म की मर्यादा भंग करने वाले, क्रूर तथा पापपूर्ण विचार रखने वाले पुरुषों का साथ छोड़ दो और ज्ञान का आश्रय लेकर धर्मात्‍मा पुरुषों की सेवा मे रहो। यह शरीर एक नदी है। पांच इन्द्रियां इसमें जल हैं। काम और लोभ रूपी मगर इसके भीतर भरे पड़े हैं। जन्‍म और मृत्‍यु के दुर्गम प्रदेश में यह नदी बह रही है। तुम धैर्य की नाव पर बैठो और इसके दुर्गम स्‍थानों-जन्म आदि क्‍लेशों को पार कर जाओ। जैसे कोई भी रंग सफेद कपड़े पर ही अच्‍छी तरह खिलता है, उसी प्रकार शिष्‍टाचार का पालन करने वाले पुरुष में ही क्रमश: संचित किया हुआ बुद्धियोगमय महान् धर्म भली-भाँति प्रकाशित होता है।

अहिंसा और सत्‍यभाषण-ये समस्‍त प्राणियों के लिये अत्‍यन्‍त हितकर हैं। अहिंसा सबसे महान् धर्म है, परंतु वह सत्‍य में ही प्रतिष्ठित है। सत्य के ही आधार पर श्रेष्‍ठ पुरुषों के सभी कार्य आरम्‍भ होते हैं। अत: शिष्‍ट पुरुषों के आचार में ग्रहीत सत्‍य ही सबसे अधिक गौरव की वस्‍तु है। सदाचार ही श्रेष्‍ठ पुरुषों का धर्म है। सदाचार से ही संतों की पहचान होती है। जिस जीव की जैसी प्रकृति होती है, वह अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करता है। अपने मन को वश मे न रखने वाला पापात्‍मा पुरुष ही काम, क्रोध आदि दोषों को प्राप्‍त होता है। 'जो आरम्‍भ न्‍याययुक्‍त हो, वही धर्म कहा गया है। इसके विपरीत जो अनाचार है, वह अधर्म है'– ऐसा शिष्‍ट पुरुषों का कथन है। जिनमें क्रोध का अभाव है, जो दूसरों के दोष नहीं देखते, जिनमें अहंकार और ईर्ष्‍या का अभाव है, जो सरल तथा मनोनिग्रह से सम्‍पन्न हैं, वे शिष्टिचारी कहलाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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