कविता बघेल (वार्ता | योगदान) |
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[[चित्र:Prev.png|link=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 151 श्लोक 13-22]] | [[चित्र:Prev.png|link=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 151 श्लोक 13-22]] | ||
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− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: द्विपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद</div> | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: द्विपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद</div><br /> |
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+ | <center>'''इंद्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश करके उनसे अश्वमेधयज्ञ का अनुष्ठान कराना तथा निष्पाप राजा का पुन: अपने राज्य में प्रवेश'''</center><br /> | ||
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− | [[इन्द्रोत|शौनक]] ने कहा- राजन! तुमने ऐसी प्रतिज्ञा की है, इससे जान पड़ता है कि तुम्हारा मन पाप की ओर से निवृत हो गया है; इसलिये मैं तुम्हें [[धर्म]] का उपदेश करुँगा; क्योंकि तुम श्रीसम्पन्न, महाबलवान और संतुष्टचित हो। साथ ही स्वयं धर्म पर दृष्टि रखते हो। राजा पहले कठोर स्वभाव का होकर पीछे कोमल भाव का अवलम्बन करके जो अपने सद्व्यवहार से समस्त प्राणियों पर अनुग्रह करता है, वह अत्यंत आश्चर्य की ही बात है। चिरकाल तक तीक्ष्ण स्वभाव का आश्रय लेने वाला राजा निश्चय ही अपना सब कुछ जलाकर भस्म कर ड़ालता है, ऐसी लोगों की धारण है; परंतु तुम वैसे होकर भी जो धर्म पर ही दृष्टि रख रहे हो, यह काम आश्चर्य की बात नहीं है। जनमेजय! तुम जो दीर्घकाल से भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थों का परित्याग करके [[तपस्या]] में लगे हुए हो, यह पाप से अभिभूत हुए मनुष्यों के लिये अद्भभुत बात है। यदि धन-सम्पन्न पुरुष दानी हो एवं कृपण या दरिद्र मनुष्य तपस्या का धनी हो जाय तो इसे आश्चर्य की बात नहीं मानते | + | [[इन्द्रोत|शौनक]] ने कहा- राजन! तुमने ऐसी प्रतिज्ञा की है, इससे जान पड़ता है कि तुम्हारा मन पाप की ओर से निवृत हो गया है; इसलिये मैं तुम्हें [[धर्म]] का उपदेश करुँगा; क्योंकि तुम श्रीसम्पन्न, महाबलवान और संतुष्टचित हो। साथ ही स्वयं धर्म पर दृष्टि रखते हो। राजा पहले कठोर स्वभाव का होकर पीछे कोमल भाव का अवलम्बन करके जो अपने सद्व्यवहार से समस्त प्राणियों पर अनुग्रह करता है, वह अत्यंत आश्चर्य की ही बात है। चिरकाल तक तीक्ष्ण स्वभाव का आश्रय लेने वाला राजा निश्चय ही अपना सब कुछ जलाकर भस्म कर ड़ालता है, ऐसी लोगों की धारण है; परंतु तुम वैसे होकर भी जो धर्म पर ही दृष्टि रख रहे हो, यह काम आश्चर्य की बात नहीं है। जनमेजय! तुम जो दीर्घकाल से भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थों का परित्याग करके [[तपस्या]] में लगे हुए हो, यह पाप से अभिभूत हुए मनुष्यों के लिये अद्भभुत बात है। यदि धन-सम्पन्न पुरुष दानी हो एवं कृपण या दरिद्र मनुष्य तपस्या का धनी हो जाय तो इसे आश्चर्य की बात नहीं मानते हैं; क्योंकि ऐसे पुरुषों का दान और तप से सम्पन्न होना अधिक कठिन नहीं है। यदि सारी बातों पर पूर्वापर विचार न करके कोई कार्य आरम्भ किया जाय तो यही कायरतापूर्ण दोष है और यदि भलीभाँति आलोचना करके कोई कार्य हो तो यही उसमें गुण माना जाता है। पृथ्वीनाथ! [[यज्ञ]], दान, दया, [[वेद]] और सत्य- ये पाँचों पवित्र बताये गये हैं। इनके साथ अच्छी तरह आचरण में लाया हुआ तप भी छठा पवित्र कर्म माना गया है। जनमेजय! राजाओं के लिये ये छहों वस्तुएँ परम पवित्र हैं। इन्हें भलीभाँति आचरण में लाने पर तुम श्रेष्ठतम धर्म को प्राप्त कर लोगे। पुण्य तीर्थों की यात्रा करना भी परम पवित्र माना गया है। इस विषय में विज्ञ पुरुष [[ययाति|राजा ययाति]] की गायी हुई इस गाथा का उदाहरण दिया करते हैं। जो मनुष्य अपने लिये दीर्घ जीवन की इच्छा रखता है, वह यत्नपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान करके फिर उसे त्यागकर तपस्या में लग जाय। कुरुक्षेत्र को पवित्र तीर्थ बताया गया। |
कुरुक्षेत्र से अधिक पवित्र [[सरस्वती नदी|सरस्वती नदी]] है, उससे भी अधिक पवित्र उसके भिन्न-भिन्न तीर्थ हैं। उन तीर्थों में भी दूसरों की अपेक्षा [[पृथूदक|पृथूदक तीर्थ]] को श्रेष्ठ कहा गया है। उसमें स्नान करने और उसका जल पीने से मनुष्य को कल ही होने वाली मृत्यु का भय नहीं सताता अर्थात वह कृतकृत्य हो जाता है। इस कारण मरने से नहीं डरता। यदि तुम महासरोवर [[पुष्कर|पुष्कर]], [[प्रभास]], [[उत्तर मानस|उत्तर मानस]], [[कालोदक]], [[दृषद्वती]] और सरस्वती के संगम तथा मानसरोवर आदि तीर्थों में जाकर स्नान करोगे तो तुम्हें पुन: अपने जीवन के लिये दीर्घायु प्राप्त होगी। सभी तीर्थस्थानों में स्वाध्यायशील होकर स्नान करे। मनु ने कहा है कि सर्वत्यागरूप संन्यास सम्पूर्ण पवित्र धर्मों में श्रेष्ठ है। इस विषय में भी सत्यवान द्वारा निर्मित हुई इन गाथाओं का उदाहरण दिया जाता है। जैसे बालक राग-द्वेष से शून्य होने के कारण सदा सत्यपरायण ही रहता है। न तो वह पुण्य करता है ओर न पाप ही। इसी प्रकार प्रत्येक श्रेष्ठ पुरुषों को भी होना चाहिये। | कुरुक्षेत्र से अधिक पवित्र [[सरस्वती नदी|सरस्वती नदी]] है, उससे भी अधिक पवित्र उसके भिन्न-भिन्न तीर्थ हैं। उन तीर्थों में भी दूसरों की अपेक्षा [[पृथूदक|पृथूदक तीर्थ]] को श्रेष्ठ कहा गया है। उसमें स्नान करने और उसका जल पीने से मनुष्य को कल ही होने वाली मृत्यु का भय नहीं सताता अर्थात वह कृतकृत्य हो जाता है। इस कारण मरने से नहीं डरता। यदि तुम महासरोवर [[पुष्कर|पुष्कर]], [[प्रभास]], [[उत्तर मानस|उत्तर मानस]], [[कालोदक]], [[दृषद्वती]] और सरस्वती के संगम तथा मानसरोवर आदि तीर्थों में जाकर स्नान करोगे तो तुम्हें पुन: अपने जीवन के लिये दीर्घायु प्राप्त होगी। सभी तीर्थस्थानों में स्वाध्यायशील होकर स्नान करे। मनु ने कहा है कि सर्वत्यागरूप संन्यास सम्पूर्ण पवित्र धर्मों में श्रेष्ठ है। इस विषय में भी सत्यवान द्वारा निर्मित हुई इन गाथाओं का उदाहरण दिया जाता है। जैसे बालक राग-द्वेष से शून्य होने के कारण सदा सत्यपरायण ही रहता है। न तो वह पुण्य करता है ओर न पाप ही। इसी प्रकार प्रत्येक श्रेष्ठ पुरुषों को भी होना चाहिये। |
15:45, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण
द्विपञ्चाशदधिकशततम (152) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्विपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
कुरुक्षेत्र से अधिक पवित्र सरस्वती नदी है, उससे भी अधिक पवित्र उसके भिन्न-भिन्न तीर्थ हैं। उन तीर्थों में भी दूसरों की अपेक्षा पृथूदक तीर्थ को श्रेष्ठ कहा गया है। उसमें स्नान करने और उसका जल पीने से मनुष्य को कल ही होने वाली मृत्यु का भय नहीं सताता अर्थात वह कृतकृत्य हो जाता है। इस कारण मरने से नहीं डरता। यदि तुम महासरोवर पुष्कर, प्रभास, उत्तर मानस, कालोदक, दृषद्वती और सरस्वती के संगम तथा मानसरोवर आदि तीर्थों में जाकर स्नान करोगे तो तुम्हें पुन: अपने जीवन के लिये दीर्घायु प्राप्त होगी। सभी तीर्थस्थानों में स्वाध्यायशील होकर स्नान करे। मनु ने कहा है कि सर्वत्यागरूप संन्यास सम्पूर्ण पवित्र धर्मों में श्रेष्ठ है। इस विषय में भी सत्यवान द्वारा निर्मित हुई इन गाथाओं का उदाहरण दिया जाता है। जैसे बालक राग-द्वेष से शून्य होने के कारण सदा सत्यपरायण ही रहता है। न तो वह पुण्य करता है ओर न पाप ही। इसी प्रकार प्रत्येक श्रेष्ठ पुरुषों को भी होना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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