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− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद</div> | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद</div><br /> |
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[[भीष्म|भीष्मजी]] कहते हैं- राजन! व्याध ने उन दानों पक्षियों को दिव्य रूप धारण करके विमान पर बैठे और आकाशमार्ग से जाते देखा। उन दिव्य दम्पति को देखकर व्याध उनकी सद्गति के विषय में विचार करने लगा। मैं भी इसी प्रकार तपस्या करके परम गति को प्राप्त होऊगाँ, ऐसा अपनी बुद्धि के द्वारा निश्चय करके पक्षियों द्वारा जीवन-निर्वाह करने वाला वह बहेलिया वहाँ से महाप्रस्थान के पथ का आश्रय लेकर चल दिया। उसने सब प्रकार की चेष्टा त्याग दी। [[वायु]] पीकर रहने लगा। [[स्वर्ग]] की अभिलाषा से अन्य सब वस्तुओं की ओर से उसने ममता हटा ली। | [[भीष्म|भीष्मजी]] कहते हैं- राजन! व्याध ने उन दानों पक्षियों को दिव्य रूप धारण करके विमान पर बैठे और आकाशमार्ग से जाते देखा। उन दिव्य दम्पति को देखकर व्याध उनकी सद्गति के विषय में विचार करने लगा। मैं भी इसी प्रकार तपस्या करके परम गति को प्राप्त होऊगाँ, ऐसा अपनी बुद्धि के द्वारा निश्चय करके पक्षियों द्वारा जीवन-निर्वाह करने वाला वह बहेलिया वहाँ से महाप्रस्थान के पथ का आश्रय लेकर चल दिया। उसने सब प्रकार की चेष्टा त्याग दी। [[वायु]] पीकर रहने लगा। [[स्वर्ग]] की अभिलाषा से अन्य सब वस्तुओं की ओर से उसने ममता हटा ली। | ||
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महान् लक्ष्य पर पहुँचने का निश्चय करके बहेलिया उस वन में घुसा। घुसते ही कंटीली झाडियों में फंस गया। कांटों से उसका सारा शरीर छिदकर लहूलुहान हो गया। नाना प्रकार के वन्य पशुओं से भरे हुए उस निर्जन वन में वह इधर–उधर भटकने लगा। इतने ही में प्रचण्ड पवन के वेग से वृक्षों में परस्पर रगड़ होने के कारण उस वन में बड़ी भारी आग लग गयी। आग की बड़ी–बड़ी लपटें ऊपर को उठने लगीं। | महान् लक्ष्य पर पहुँचने का निश्चय करके बहेलिया उस वन में घुसा। घुसते ही कंटीली झाडियों में फंस गया। कांटों से उसका सारा शरीर छिदकर लहूलुहान हो गया। नाना प्रकार के वन्य पशुओं से भरे हुए उस निर्जन वन में वह इधर–उधर भटकने लगा। इतने ही में प्रचण्ड पवन के वेग से वृक्षों में परस्पर रगड़ होने के कारण उस वन में बड़ी भारी आग लग गयी। आग की बड़ी–बड़ी लपटें ऊपर को उठने लगीं। | ||
− | प्रलयकाल की संवर्तक [[अग्नि]] के समान प्रज्वलित एवं कुपित हुए [[अग्निदेव]] लता, डालियों और वृक्षों से व्याप्त हुए उस वन को दग्ध करने लगा। हवा से उड़ी हुई चिनगारियों तथा ज्वालाओं द्वारा चारों और फैलकर उस | + | प्रलयकाल की संवर्तक [[अग्नि]] के समान प्रज्वलित एवं कुपित हुए [[अग्निदेव]] लता, डालियों और वृक्षों से व्याप्त हुए उस वन को दग्ध करने लगा। हवा से उड़ी हुई चिनगारियों तथा ज्वालाओं द्वारा चारों और फैलकर उस दावानल ने पशु-पक्षियों से भरे हुए भयंकर वन को जलाना आरम्भ किया। बहेलिया अपने शरीर का परित्याग करने के लिये मन में हर्ष और उल्लास भरकर उस बढ़ती हुई आग की ओर दौड़ पड़ा। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर उस आग में जल जाने से बहेलिये के सारे पाप नष्ट हो गये और उसने परम सिद्धि प्राप्त कर ली। |
− | थोड़ी ही देर में अपने आपको उसने देखा कि वह बड़े आनन्द से स्वर्गलोक में विराजमान है तथा अनेक यक्ष, सिद्ध और गन्धर्वों के बीच में [[इन्द्र]] के समान शोभा पा रहा है। इस प्रकार वह धर्मात्मा कबूतर, पतिव्रता कपोती और बहेलिया– तीनों साथ-साथ अपने पुण्यकर्म के बल से स्वर्गलोक में जा पहुँचे। इसी प्रकार जो स्त्री अपने पति का अनुसरण करती है, वह कपोती के समान शीघ्र ही स्वर्गलोक में स्थित हो अपने तेज से प्रकाशित होती है। | + | थोड़ी ही देर में अपने आपको उसने देखा कि वह बड़े आनन्द से [[स्वर्ग|स्वर्गलोक]] में विराजमान है तथा अनेक यक्ष, सिद्ध और गन्धर्वों के बीच में [[इन्द्र]] के समान शोभा पा रहा है। इस प्रकार वह धर्मात्मा कबूतर, पतिव्रता कपोती और बहेलिया– तीनों साथ-साथ अपने पुण्यकर्म के बल से स्वर्गलोक में जा पहुँचे। इसी प्रकार जो स्त्री अपने पति का अनुसरण करती है, वह कपोती के समान शीघ्र ही स्वर्गलोक में स्थित हो अपने तेज से प्रकाशित होती है। |
यह प्राचीन वृतान्त (परशुराम जी मुचुकुन्द को सुनाया था) यह ठीक ऐसा ही है। बहेलिये और महात्मा कबूतर को उनके पुण्यकर्म के प्रभाव से धर्मात्माओं की गति प्राप्त हुई। जो मनुष्य इस प्रसंग को प्रतिदिन सुनता और इसका वर्णन करता है, उन दोनों को मन से भी प्रमादजनित अशुभ की प्राप्ति नहीं होती। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! यह शरणागत का पालन महान धर्म है। ऐसा करने से गोवध करने वाले पुरुषों के पाप का भी प्रायश्चित हो जाता है। जो शरणागत का वध करता है, उसको कभी इस पाप से छुटकारा नहीं मिलता। इस पापनाशक पुण्यमय इतिहास को सुन लेने पर मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। | यह प्राचीन वृतान्त (परशुराम जी मुचुकुन्द को सुनाया था) यह ठीक ऐसा ही है। बहेलिये और महात्मा कबूतर को उनके पुण्यकर्म के प्रभाव से धर्मात्माओं की गति प्राप्त हुई। जो मनुष्य इस प्रसंग को प्रतिदिन सुनता और इसका वर्णन करता है, उन दोनों को मन से भी प्रमादजनित अशुभ की प्राप्ति नहीं होती। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! यह शरणागत का पालन महान धर्म है। ऐसा करने से गोवध करने वाले पुरुषों के पाप का भी प्रायश्चित हो जाता है। जो शरणागत का वध करता है, उसको कभी इस पाप से छुटकारा नहीं मिलता। इस पापनाशक पुण्यमय इतिहास को सुन लेने पर मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। |
15:05, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण
एकोनपञ्चाशदधिकशततम (149) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
आगे जाकर उसने एक विस्तृत एवं मनोरम सरोवर देखा जो कमल–समूहों से सुशोभित हो रहा था। नाना प्रकार के जलपक्षी उसमें कलरव कर रहे थे। वह तालाब शीतल जल से भरा था और अत्यन्त सुखद जान पड़ता था। राजन्! कोई मनुष्य कितनी ही प्यास से पीड़ित क्यों न हो, नि:संदेह उस सरोवर के दर्शनमात्र से वह तृप्त हो सकता था। इधर यह व्याध उपवास के कारण अत्यन्त दुर्बल हो गया था, तो भी उधर दृष्टिपात किये बिना ही बड़े हर्ष के साथ हिंसक जन्तुओं से भरे हुए वन में प्रवेश कर गया। महान् लक्ष्य पर पहुँचने का निश्चय करके बहेलिया उस वन में घुसा। घुसते ही कंटीली झाडियों में फंस गया। कांटों से उसका सारा शरीर छिदकर लहूलुहान हो गया। नाना प्रकार के वन्य पशुओं से भरे हुए उस निर्जन वन में वह इधर–उधर भटकने लगा। इतने ही में प्रचण्ड पवन के वेग से वृक्षों में परस्पर रगड़ होने के कारण उस वन में बड़ी भारी आग लग गयी। आग की बड़ी–बड़ी लपटें ऊपर को उठने लगीं। प्रलयकाल की संवर्तक अग्नि के समान प्रज्वलित एवं कुपित हुए अग्निदेव लता, डालियों और वृक्षों से व्याप्त हुए उस वन को दग्ध करने लगा। हवा से उड़ी हुई चिनगारियों तथा ज्वालाओं द्वारा चारों और फैलकर उस दावानल ने पशु-पक्षियों से भरे हुए भयंकर वन को जलाना आरम्भ किया। बहेलिया अपने शरीर का परित्याग करने के लिये मन में हर्ष और उल्लास भरकर उस बढ़ती हुई आग की ओर दौड़ पड़ा। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर उस आग में जल जाने से बहेलिये के सारे पाप नष्ट हो गये और उसने परम सिद्धि प्राप्त कर ली। थोड़ी ही देर में अपने आपको उसने देखा कि वह बड़े आनन्द से स्वर्गलोक में विराजमान है तथा अनेक यक्ष, सिद्ध और गन्धर्वों के बीच में इन्द्र के समान शोभा पा रहा है। इस प्रकार वह धर्मात्मा कबूतर, पतिव्रता कपोती और बहेलिया– तीनों साथ-साथ अपने पुण्यकर्म के बल से स्वर्गलोक में जा पहुँचे। इसी प्रकार जो स्त्री अपने पति का अनुसरण करती है, वह कपोती के समान शीघ्र ही स्वर्गलोक में स्थित हो अपने तेज से प्रकाशित होती है। यह प्राचीन वृतान्त (परशुराम जी मुचुकुन्द को सुनाया था) यह ठीक ऐसा ही है। बहेलिये और महात्मा कबूतर को उनके पुण्यकर्म के प्रभाव से धर्मात्माओं की गति प्राप्त हुई। जो मनुष्य इस प्रसंग को प्रतिदिन सुनता और इसका वर्णन करता है, उन दोनों को मन से भी प्रमादजनित अशुभ की प्राप्ति नहीं होती। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! यह शरणागत का पालन महान धर्म है। ऐसा करने से गोवध करने वाले पुरुषों के पाप का भी प्रायश्चित हो जाता है। जो शरणागत का वध करता है, उसको कभी इस पाप से छुटकारा नहीं मिलता। इस पापनाशक पुण्यमय इतिहास को सुन लेने पर मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व कें अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में व्याध का स्वर्गलोक में गमनविषयक एक सौ उनचासवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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