कविता बघेल (वार्ता | योगदान) |
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‘जिसकी [[बुद्धि]] संकट में पड़कर शोकाभिभूत हो जाय, उस भूतकाल की बातें ([[नल|राजा नल]] तथा [[राम|भगवान श्रीराम]] आदि के जीवन-वृतान्त) सुनाकर सान्त्वना दे, जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं है, उसे भविष्य में लाभ की आशा दिलाकर तथा विद्वान पुरुषों को तत्काल ही धन आदि देकर शान्त करे। ‘ऐश्वर्य चाहने वाले राजा को चाहिये कि वह अवसर देखकर शत्रु के सामने हाथ जोड़े, शपथ खाय, आश्वासन दे और चरणों में सिर झुकाकर बातचीत करे। इतना ही नहीं, वह धीरज देकर उसके आँसू तक पोंछे। ‘जब तक समय बदलकर अपने अनुकूल न हो जाय, तब तक शत्रु को कंधे पर बिठाकर ढोना पड़े तो वह भी करे; परंतु जब अनुकूल समय आ जाय, तब उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे, जैसे घडे़ को पत्थर पर पटककर फोड़ दिया जाता है। ‘राजेन्द्र, दो ही घड़ी सही, मनुष्य तिंदुक की लकड़ी की मशाल के समान जोर-जोर से प्रज्वलित हो उठे (शत्रु के सामने घोर पराक्रम प्रकट करे), दीर्घकाल तक भूसी की आग के समान बिना ज्वाला के ही धूआँ न उठावे (मंद पराक्रम का परिचय न दे) | ‘जिसकी [[बुद्धि]] संकट में पड़कर शोकाभिभूत हो जाय, उस भूतकाल की बातें ([[नल|राजा नल]] तथा [[राम|भगवान श्रीराम]] आदि के जीवन-वृतान्त) सुनाकर सान्त्वना दे, जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं है, उसे भविष्य में लाभ की आशा दिलाकर तथा विद्वान पुरुषों को तत्काल ही धन आदि देकर शान्त करे। ‘ऐश्वर्य चाहने वाले राजा को चाहिये कि वह अवसर देखकर शत्रु के सामने हाथ जोड़े, शपथ खाय, आश्वासन दे और चरणों में सिर झुकाकर बातचीत करे। इतना ही नहीं, वह धीरज देकर उसके आँसू तक पोंछे। ‘जब तक समय बदलकर अपने अनुकूल न हो जाय, तब तक शत्रु को कंधे पर बिठाकर ढोना पड़े तो वह भी करे; परंतु जब अनुकूल समय आ जाय, तब उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे, जैसे घडे़ को पत्थर पर पटककर फोड़ दिया जाता है। ‘राजेन्द्र, दो ही घड़ी सही, मनुष्य तिंदुक की लकड़ी की मशाल के समान जोर-जोर से प्रज्वलित हो उठे (शत्रु के सामने घोर पराक्रम प्रकट करे), दीर्घकाल तक भूसी की आग के समान बिना ज्वाला के ही धूआँ न उठावे (मंद पराक्रम का परिचय न दे) | ||
− | ‘अनेक प्रकार के प्रयोजन रखने वाला मनुष्य कृतघ्न के साथ आर्थिक संबंध न जोड़े, किसी का भी काम पूरा न करे, क्योंकि जो अथा (प्रयोजन-सिद्धि की इच्छावाला) होता है, उससे तो बारंबार काम लिया जा सकता है; परंतु जिसका प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, वह अपने उपकारी पुरुष की उपेक्षा कर देता है; इसलिये दूसरों के सारे कार्य (जो अपने द्वारा होने वाले हों) अधूरे ही रखने चाहिये। ‘कोयल, सूअर, [[सुमेरु|सुमरू पर्वत]] , शून्यगृह, नट तथा अनुरक्त सुहृद-इनमें जो श्रेष्ठ गुण या विशेषताएँ हैं, उन्हें राजा काम में लावे<ref>कोयल का श्रेष्ठ गुण है कण्ठ की मधुरता, सूअर के आक्रमण को रोकना कठिन है, यही उसकी विशेषता है; मेरु का गुण है सबसे अधिक उन्नत होना, सूने घर की विशेषता है अनेक को आश्रय देना, नट का गुण है, दूसरों को अपने क्रिया-कौशल द्वारा सन्तुष्ट करना तथा अनुरक्त सुहृद की विशेषता है हितपरायणता। ये सारे गुण राजा को अपनाने चाहिये।</ref> ‘राजा को चाहिये कि वह प्रतिदिन उठ-उठकर पूर्ण सावधान हो शत्रु के घर जाय और उसका अमंगल ही क्यों न हो रहा हो, सदा उसकी कुशल पूछे और मंगल कामना करे। ‘जो आलसी हैं, कायर हैं, अभिमानी हैं, लोकचर्चा से डरने वाले और सदा समय की प्रतीक्षा में बैठे रहने वाले हैं, ऐसे लोग अपने अभीष्ट अर्थ को नहीं पा सकते। ‘राजा इस तरह सतर्क रहे कि उसके छिद्र का शत्रु को पता न चले, परंतु वह शत्रु के छिद्र को जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अंगों को समेटकर छिपा लेता है, उसी प्रकार राजा अपने छिद्रों को छिपाये रखे। ‘राजा बगुले के समान एकाग्रचित्त होकर कर्तव्यविषय को चिंतन करे। सिंह के समान पराक्रम प्रकट करे। भेड़ियें की भाँति सहसा आक्रमण करके शत्रु का धन लूट ले तथा [[बाण अस्त्र|बाण]] की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़े। ‘पान, जूआ, स्त्री, शिकार, तथा गाना-बजाना- इन सबका संयमपूर्वक अनासक्तभाव से सेवन करे; क्योंकि इनमें आसक्ति होना अनिष्टकारक है। | + | ‘अनेक प्रकार के प्रयोजन रखने वाला मनुष्य कृतघ्न के साथ आर्थिक संबंध न जोड़े, किसी का भी काम पूरा न करे, क्योंकि जो अथा (प्रयोजन-सिद्धि की इच्छावाला) होता है, उससे तो बारंबार काम लिया जा सकता है; परंतु जिसका प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, वह अपने उपकारी पुरुष की उपेक्षा कर देता है; इसलिये दूसरों के सारे कार्य (जो अपने द्वारा होने वाले हों) अधूरे ही रखने चाहिये। ‘कोयल, सूअर, [[सुमेरु|सुमरू पर्वत]] , शून्यगृह, नट तथा अनुरक्त सुहृद-इनमें जो श्रेष्ठ गुण या विशेषताएँ हैं, उन्हें राजा काम में लावे<ref>कोयल का श्रेष्ठ गुण है कण्ठ की मधुरता, सूअर के आक्रमण को रोकना कठिन है, यही उसकी विशेषता है; मेरु का गुण है सबसे अधिक उन्नत होना, सूने घर की विशेषता है अनेक को आश्रय देना, नट का गुण है, दूसरों को अपने क्रिया-कौशल द्वारा सन्तुष्ट करना तथा अनुरक्त सुहृद की विशेषता है हितपरायणता। ये सारे गुण राजा को अपनाने चाहिये।</ref> ‘राजा को चाहिये कि वह प्रतिदिन उठ-उठकर पूर्ण सावधान हो शत्रु के घर जाय और उसका अमंगल ही क्यों न हो रहा हो, सदा उसकी कुशल पूछे और मंगल कामना करे। ‘जो आलसी हैं, कायर हैं, अभिमानी हैं, लोकचर्चा से डरने वाले और सदा समय की प्रतीक्षा में बैठे रहने वाले हैं, ऐसे लोग अपने अभीष्ट अर्थ को नहीं पा सकते। ‘राजा इस तरह सतर्क रहे कि उसके छिद्र का शत्रु को पता न चले, परंतु वह शत्रु के छिद्र को जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अंगों को समेटकर छिपा लेता है, उसी प्रकार राजा अपने छिद्रों को छिपाये रखे। ‘राजा बगुले के समान एकाग्रचित्त होकर कर्तव्यविषय को चिंतन करे। सिंह के समान पराक्रम प्रकट करे। भेड़ियें की भाँति सहसा आक्रमण करके शत्रु का धन लूट ले तथा [[बाण अस्त्र|बाण]] की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़े। ‘पान, जूआ, स्त्री, शिकार, तथा गाना-बजाना- इन सबका संयमपूर्वक अनासक्तभाव से सेवन करे; क्योंकि इनमें आसक्ति होना अनिष्टकारक है। |
− | ‘बुद्धिमान पुरुष देश और काल को अपने अनुकूल पाकर पराक्रम प्रकट करे। देशकाल की अनुकूलता न होने पर किया गया पराक्रम निष्फल होता है। ‘अपने लिये समय अच्छा है या खराब? अपनापक्ष प्रबल है या निर्बल? इन सब बातों का निश्चय करके तथा शत्रु के भी बल को समझकर युद्ध या संधि के कार्य में अपने आप को लगावे। | + | ‘राजा बाँस का [[धनुष अस्त्र|धनुष]] बनावे, हिरन के समान चौकन्ना होकर सोये, अंधा बने रहने योग्य समय हो तो अंधें का भाव किये रहे और अवसर के अनुसार बहरे का भाव भी स्वीकार कर लो। ‘बुद्धिमान पुरुष देश और काल को अपने अनुकूल पाकर पराक्रम प्रकट करे। देशकाल की अनुकूलता न होने पर किया गया पराक्रम निष्फल होता है। ‘अपने लिये समय अच्छा है या खराब? अपनापक्ष प्रबल है या निर्बल? इन सब बातों का निश्चय करके तथा शत्रु के भी बल को समझकर युद्ध या संधि के कार्य में अपने आप को लगावे। |
15:21, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण
चत्वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद
‘अनेक प्रकार के प्रयोजन रखने वाला मनुष्य कृतघ्न के साथ आर्थिक संबंध न जोड़े, किसी का भी काम पूरा न करे, क्योंकि जो अथा (प्रयोजन-सिद्धि की इच्छावाला) होता है, उससे तो बारंबार काम लिया जा सकता है; परंतु जिसका प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, वह अपने उपकारी पुरुष की उपेक्षा कर देता है; इसलिये दूसरों के सारे कार्य (जो अपने द्वारा होने वाले हों) अधूरे ही रखने चाहिये। ‘कोयल, सूअर, सुमरू पर्वत , शून्यगृह, नट तथा अनुरक्त सुहृद-इनमें जो श्रेष्ठ गुण या विशेषताएँ हैं, उन्हें राजा काम में लावे[1] ‘राजा को चाहिये कि वह प्रतिदिन उठ-उठकर पूर्ण सावधान हो शत्रु के घर जाय और उसका अमंगल ही क्यों न हो रहा हो, सदा उसकी कुशल पूछे और मंगल कामना करे। ‘जो आलसी हैं, कायर हैं, अभिमानी हैं, लोकचर्चा से डरने वाले और सदा समय की प्रतीक्षा में बैठे रहने वाले हैं, ऐसे लोग अपने अभीष्ट अर्थ को नहीं पा सकते। ‘राजा इस तरह सतर्क रहे कि उसके छिद्र का शत्रु को पता न चले, परंतु वह शत्रु के छिद्र को जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अंगों को समेटकर छिपा लेता है, उसी प्रकार राजा अपने छिद्रों को छिपाये रखे। ‘राजा बगुले के समान एकाग्रचित्त होकर कर्तव्यविषय को चिंतन करे। सिंह के समान पराक्रम प्रकट करे। भेड़ियें की भाँति सहसा आक्रमण करके शत्रु का धन लूट ले तथा बाण की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़े। ‘पान, जूआ, स्त्री, शिकार, तथा गाना-बजाना- इन सबका संयमपूर्वक अनासक्तभाव से सेवन करे; क्योंकि इनमें आसक्ति होना अनिष्टकारक है। ‘राजा बाँस का धनुष बनावे, हिरन के समान चौकन्ना होकर सोये, अंधा बने रहने योग्य समय हो तो अंधें का भाव किये रहे और अवसर के अनुसार बहरे का भाव भी स्वीकार कर लो। ‘बुद्धिमान पुरुष देश और काल को अपने अनुकूल पाकर पराक्रम प्रकट करे। देशकाल की अनुकूलता न होने पर किया गया पराक्रम निष्फल होता है। ‘अपने लिये समय अच्छा है या खराब? अपनापक्ष प्रबल है या निर्बल? इन सब बातों का निश्चय करके तथा शत्रु के भी बल को समझकर युद्ध या संधि के कार्य में अपने आप को लगावे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कोयल का श्रेष्ठ गुण है कण्ठ की मधुरता, सूअर के आक्रमण को रोकना कठिन है, यही उसकी विशेषता है; मेरु का गुण है सबसे अधिक उन्नत होना, सूने घर की विशेषता है अनेक को आश्रय देना, नट का गुण है, दूसरों को अपने क्रिया-कौशल द्वारा सन्तुष्ट करना तथा अनुरक्त सुहृद की विशेषता है हितपरायणता। ये सारे गुण राजा को अपनाने चाहिये।
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