"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 59-74" के अवतरणों में अंतर

 
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 59-74 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
जैसे मैं पुत्र शोक से संतप्‍त होकर आपके पुत्र के प्रति पापपूर्ण बर्ताव कर बैठी, उसी प्रकार आप भी मुझ पर प्रहार कर सकते हैं। यहाँ जो यथार्थ बात है, वह मुझसे सुनिये। मनुष्‍य खाने और खेलने के लिेये ही पक्षियों की कामना करते हैं। वध करने या बन्‍धन में डालने के सिवा तीसरे प्रकार का कोई सम्‍पर्क पक्षियों के साथ उनका नहीं देखा जाता है। इस वध और बन्‍धन के भय से ही मुमुक्षुलोग मोक्ष-शास्त्र का आश्रय लेकर रहते है; क्‍योंकि वेदवेत्‍ता पुरुषों का कहना है कि जन्‍म और मरण का दु:ख असह्म होता है। सबको अपने प्राण प्रिय होते हैं, सभी को अपने [[पुत्र]] प्‍यारे लगते हैं; सब लोग दु:ख से उद्विग्‍न हो उठते हैं और सभी को सुख की प्राप्ति अभीष्ट होती है। महाराज ब्रह्मदत्त! दु:ख के अनेक रूप हैं। बुढा़पा दु:ख है, धन का नाश दु:ख है, अप्रियजनों के साथ रहना दु:ख है और प्रियजनों से बिछुड़ना दु:ख है। वध और बन्‍धन से भी सबको दु:ख होता है। स्त्री के कारण और स्‍वाभाविक रूप से भी दु:ख हुआ करता है तथा पुत्र यदि नष्ट हो जाय या दुष्ट निकल जाय तो उससे भी लोगों को सदा दु:ख प्राप्‍त होता रहता है। कुछ मूढ़ मनुष्‍य कहा करते हैं कि पराये दु:ख में दु:ख नहीं होता; परंतु वही ऐसी बात श्रेष्ठ पुरुषों के निकट कहा करता है, जो दु:ख के तत्तव को नहीं जानता। जो दु:ख से पीड़ित होकर शोक करता है तथा जो अपने और पराय सभी के दु:ख का रस जानता है, वह ऐसी बात कैसे कह सकता है?  
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जैसे मैं पुत्र शोक से संतप्‍त होकर आपके पुत्र के प्रति पापपूर्ण बर्ताव कर बैठी, उसी प्रकार आप भी मुझ पर प्रहार कर सकते हैं। यहाँ जो यथार्थ बात है, वह मुझसे सुनिये। मनुष्‍य खाने और खेलने के लिेये ही पक्षियों की कामना करते हैं। वध करने या बन्‍धन में डालने के सिवा तीसरे प्रकार का कोई सम्‍पर्क पक्षियों के साथ उनका नहीं देखा जाता है। इस वध और बन्‍धन के भय से ही मुमुक्षुलोग मोक्ष-शास्त्र का आश्रय लेकर रहते हैं; क्‍योंकि वेदवेत्‍ता पुरुषों का कहना है कि जन्‍म और मरण का दु:ख असह्य होता है। सबको अपने प्राण प्रिय होते हैं, सभी को अपने [[पुत्र]] प्‍यारे लगते हैं; सब लोग दु:ख से उद्विग्‍न हो उठते हैं और सभी को सुख की प्राप्ति अभीष्ट होती है। महाराज ब्रह्मदत्त! दु:ख के अनेक रूप हैं। बुढा़पा दु:ख है, धन का नाश दु:ख है, अप्रियजनों के साथ रहना दु:ख है और प्रियजनों से बिछुड़ना दु:ख है। वध और बन्‍धन से भी सबको दु:ख होता है। स्त्री के कारण और स्‍वाभाविक रूप से भी दु:ख हुआ करता है तथा पुत्र यदि नष्ट हो जाय या दुष्ट निकल जाय तो उससे भी लोगों को सदा दु:ख प्राप्‍त होता रहता है। कुछ मूढ़ मनुष्‍य कहा करते हैं कि पराये दु:ख में दु:ख नहीं होता; परंतु वही ऐसी बात श्रेष्ठ पुरुषों के निकट कहा करता है, जो दु:ख के तत्तव को नहीं जानता। जो दु:ख से पीड़ित होकर शोक करता है तथा जो अपने और पराये सभी के दु:ख का रस जानता है, वह ऐसी बात कैसे कह सकता है?  
  
 
शत्रुदमन नरेश! आपने जो मेरा अपकार किया है तथा मैंने बदले में जो कुछ किया है, उसे सैकड़ों वर्षेां में भी भुलाया नहीं जा सकता। इस प्रकार आपस में एक दूसरे का अपकार करने के कारण अब हमारा फिर मेल नहीं हो सकता। अपने पुत्र को याद कर-करके आपका वैर ताजा होता रहेगा। इस प्रकार मरणान्‍त वैर ठन जाने पर जो प्रेम करना चाहता है, उसका वह प्रेम उसी प्रकार असम्‍भव है, जैसे मिट्टी का बर्तन एक बार फूट जाने पर फिर नहीं जुटता है। विश्‍वास दु:ख देने वाला है, यही नीतिशास्त्रों का निश्‍चय है। प्राचीनकाल में [[शुक्राचार्य]] ने भी [[प्रह्लाद]] से दो गाथाएँ कही थीं, जो इस प्रकार हैं।
 
शत्रुदमन नरेश! आपने जो मेरा अपकार किया है तथा मैंने बदले में जो कुछ किया है, उसे सैकड़ों वर्षेां में भी भुलाया नहीं जा सकता। इस प्रकार आपस में एक दूसरे का अपकार करने के कारण अब हमारा फिर मेल नहीं हो सकता। अपने पुत्र को याद कर-करके आपका वैर ताजा होता रहेगा। इस प्रकार मरणान्‍त वैर ठन जाने पर जो प्रेम करना चाहता है, उसका वह प्रेम उसी प्रकार असम्‍भव है, जैसे मिट्टी का बर्तन एक बार फूट जाने पर फिर नहीं जुटता है। विश्‍वास दु:ख देने वाला है, यही नीतिशास्त्रों का निश्‍चय है। प्राचीनकाल में [[शुक्राचार्य]] ने भी [[प्रह्लाद]] से दो गाथाएँ कही थीं, जो इस प्रकार हैं।
  
जैसे सूखे तिनकों से ढके हुए गड्ढे के ऊपर रखे हुए मधु को लेने जाने वाले मनुष्‍य मारे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग वैरी की झूठी या सच्‍ची बात पर विश्‍वास करते हैं, वे भी बेमौत मरते हैं। जब किसी कुल में दु:खदायी वैर बँध जाता है, तब वह शांत नहीं होता। उसे याद दिलाने वाले बने ही रहते हैं, इसलिये जब तक कुल में एक भी पुरुष जीवित रहता है, तब तक वह वैर नहीं मिटता है। नरेश्‍वर! दुष्ट प्रकृति के लोग मन में वैर रखकर ऊपर से शत्रु को मधुर वचनों द्वारा सान्‍त्‍वना देते रहते हैं। तदनन्‍तर अवसर पाकर उसे उसी प्रकार पीस डालते हैं, जैसे कोई पानी से भरे हुए घडे़ को पत्‍थर पर पटककर चूर–चूर कर दे। राजन! किसी का अपराध करके फिर उस पर कभी विश्‍वास नहीं करना चाहिये। जो दूसरों का अपकार करके भी उन पर विश्‍वास करते हैं, उसे दु:ख भेागना पड़ता है।
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जैसे सूखे तिनकों से ढके हुए गड्ढे के ऊपर रखे हुए [[मधु]] को लेने जाने वाले मनुष्‍य मारे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग वैरी की झूठी या सच्‍ची बात पर विश्‍वास करते हैं, वे भी बेमौत मरते हैं। जब किसी कुल में दु:खदायी वैर बँध जाता है, तब वह शांत नहीं होता। उसे याद दिलाने वाले बने ही रहते हैं, इसलिये जब तक कुल में एक भी पुरुष जीवित रहता है, तब तक वह वैर नहीं मिटता है। नरेश्‍वर! दुष्ट प्रकृति के लोग मन में वैर रखकर ऊपर से शत्रु को मधुर वचनों द्वारा सान्‍त्‍वना देते रहते हैं। तदनन्‍तर अवसर पाकर उसे उसी प्रकार पीस डालते हैं, जैसे कोई पानी से भरे हुए घडे़ को पत्‍थर पर पटककर चूर–चूर कर दे। राजन! किसी का अपराध करके फिर उस पर कभी विश्‍वास नहीं करना चाहिये। जो दूसरों का अपकार करके भी उन पर विश्‍वास करते हैं, उसे दु:ख भेागना पड़ता है।
  
 
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14:19, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण

एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम (139) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 59-74 का हिन्दी अनुवाद

जैसे मैं पुत्र शोक से संतप्‍त होकर आपके पुत्र के प्रति पापपूर्ण बर्ताव कर बैठी, उसी प्रकार आप भी मुझ पर प्रहार कर सकते हैं। यहाँ जो यथार्थ बात है, वह मुझसे सुनिये। मनुष्‍य खाने और खेलने के लिेये ही पक्षियों की कामना करते हैं। वध करने या बन्‍धन में डालने के सिवा तीसरे प्रकार का कोई सम्‍पर्क पक्षियों के साथ उनका नहीं देखा जाता है। इस वध और बन्‍धन के भय से ही मुमुक्षुलोग मोक्ष-शास्त्र का आश्रय लेकर रहते हैं; क्‍योंकि वेदवेत्‍ता पुरुषों का कहना है कि जन्‍म और मरण का दु:ख असह्य होता है। सबको अपने प्राण प्रिय होते हैं, सभी को अपने पुत्र प्‍यारे लगते हैं; सब लोग दु:ख से उद्विग्‍न हो उठते हैं और सभी को सुख की प्राप्ति अभीष्ट होती है। महाराज ब्रह्मदत्त! दु:ख के अनेक रूप हैं। बुढा़पा दु:ख है, धन का नाश दु:ख है, अप्रियजनों के साथ रहना दु:ख है और प्रियजनों से बिछुड़ना दु:ख है। वध और बन्‍धन से भी सबको दु:ख होता है। स्त्री के कारण और स्‍वाभाविक रूप से भी दु:ख हुआ करता है तथा पुत्र यदि नष्ट हो जाय या दुष्ट निकल जाय तो उससे भी लोगों को सदा दु:ख प्राप्‍त होता रहता है। कुछ मूढ़ मनुष्‍य कहा करते हैं कि पराये दु:ख में दु:ख नहीं होता; परंतु वही ऐसी बात श्रेष्ठ पुरुषों के निकट कहा करता है, जो दु:ख के तत्तव को नहीं जानता। जो दु:ख से पीड़ित होकर शोक करता है तथा जो अपने और पराये सभी के दु:ख का रस जानता है, वह ऐसी बात कैसे कह सकता है?

शत्रुदमन नरेश! आपने जो मेरा अपकार किया है तथा मैंने बदले में जो कुछ किया है, उसे सैकड़ों वर्षेां में भी भुलाया नहीं जा सकता। इस प्रकार आपस में एक दूसरे का अपकार करने के कारण अब हमारा फिर मेल नहीं हो सकता। अपने पुत्र को याद कर-करके आपका वैर ताजा होता रहेगा। इस प्रकार मरणान्‍त वैर ठन जाने पर जो प्रेम करना चाहता है, उसका वह प्रेम उसी प्रकार असम्‍भव है, जैसे मिट्टी का बर्तन एक बार फूट जाने पर फिर नहीं जुटता है। विश्‍वास दु:ख देने वाला है, यही नीतिशास्त्रों का निश्‍चय है। प्राचीनकाल में शुक्राचार्य ने भी प्रह्लाद से दो गाथाएँ कही थीं, जो इस प्रकार हैं।

जैसे सूखे तिनकों से ढके हुए गड्ढे के ऊपर रखे हुए मधु को लेने जाने वाले मनुष्‍य मारे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग वैरी की झूठी या सच्‍ची बात पर विश्‍वास करते हैं, वे भी बेमौत मरते हैं। जब किसी कुल में दु:खदायी वैर बँध जाता है, तब वह शांत नहीं होता। उसे याद दिलाने वाले बने ही रहते हैं, इसलिये जब तक कुल में एक भी पुरुष जीवित रहता है, तब तक वह वैर नहीं मिटता है। नरेश्‍वर! दुष्ट प्रकृति के लोग मन में वैर रखकर ऊपर से शत्रु को मधुर वचनों द्वारा सान्‍त्‍वना देते रहते हैं। तदनन्‍तर अवसर पाकर उसे उसी प्रकार पीस डालते हैं, जैसे कोई पानी से भरे हुए घडे़ को पत्‍थर पर पटककर चूर–चूर कर दे। राजन! किसी का अपराध करके फिर उस पर कभी विश्‍वास नहीं करना चाहिये। जो दूसरों का अपकार करके भी उन पर विश्‍वास करते हैं, उसे दु:ख भेागना पड़ता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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