"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 31-43" के अवतरणों में अंतर

 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 31-43 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 31-43 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
जब आपस में वैर हो जाय, तब संधि करना ठीक नहीं होता। मैं अब तक जिस उद्देश्‍य से यहाँ रही हूँ, वह तो समाप्‍त हो गया। जो पहले का अपकार करने वाला प्राणी है, वह दान और मान से पूजित हो तो भी उसका मन विश्‍वस्‍त नहीं होता। अपना किया हुआ अनुचित कर्म ही दुर्बल प्राणियों को डराता रहता है। जहाँ पहले सम्‍मान मिला हो, वहीं पीछे अपमान होने लगे तो प्रत्‍येक शक्तिशाली पुरुष को पुन: सम्‍मान मिलने पर भी उस स्‍थान का परित्‍याग कर देना चाहिये। राजन! मैं आपके घर में बहुत दिनों तक बड़े आदर के साथ रही हूँ, परंतु अब यह वैर उत्‍पन्‍न हो गया; इसलिये मैं बहुत जल्‍दी यहाँ से सुखपूर्वक चली जाऊँगी।
+
जब आपस में वैर हो जाय, तब संधि करना ठीक नहीं होता। मैं अब तक जिस उद्देश्‍य से यहाँ रही हूँ, वह तो समाप्‍त हो गया। जो पहले का अपकार करने वाला प्राणी है, वह दान और मान से पूजित हो तो भी उसका मन विश्‍वस्‍त नहीं होता। अपना किया हुआ अनुचित कर्म ही दुर्बल प्राणियों को डराता रहता है। जहाँ पहले सम्‍मान मिला हो, वहीं पीछे अपमान होने लगे तो प्रत्‍येक शक्तिशाली पुरुष को पुन: सम्‍मान मिलने पर भी उस स्‍थान का परित्‍याग कर देना चाहिये। राजन! मैं आपके घर में बहुत दिनों तक बड़े आदर के साथ रही हूँ, परंतु अब यह वैर उत्‍पन्‍न हो गया; इसलिये मैं बहुत जल्‍दी यहाँ से सुखपूर्वक चली जाऊँगी। [[ब्रह्मदत्त (काम्पिल्य नरेश)|ब्रह्मदत्त]] ने कहा- पूजनी! जो एक व्‍यक्ति के अपराध करने पर बदले में स्‍वयं भी कुछ करे, वह कोई अपराध नहीं करता- अपराधी नहीं माना जाता। इससे तो पहले का अपराधी ऋणमुक्‍त हो जाता है; इसलिये तू यहीं रह। कहीं मत जा। पूजनी बोली- राजन! जिसका अपकार किया जाता है और जो अपकार करता है, उन दोनो में फिर मेल नहीं हो सकता। जो अपराध करता है और जिस पर किया जाता है उन दोनो के ही हृदयों में वह बात खटकती रहती है।
 
+
[[ब्रह्मदत्त (काम्पिल्य नरेश)|ब्रह्मदत्त]] ने कहा- पूजनी! जो एक व्‍यक्ति के अपराध करने पर बदले में स्‍वयं भी कुछ करे, वह कोई अपराध नहीं करता- अपराधी नहीं माना जाता। इससे तो पहले का अपराधी ऋणमुक्‍त हो जाता है; इसलिये तू यहीं रह। कहीं मत जा। पूजनी बोली- राजन! जिसका अपकार किया जाता है और जो अपकार करता है, उन दोनो में फिर मेल नहीं हो सकता। जो अपराध करता है और जिस पर किया जाता है उन दोनो के ही हृदयों में वह बात खटकती रहती है।
+
  
 
ब्रह्मदत्त ने कहा- पूजनी! बदला ले लेने पर तो वैर शान्‍त हो जाता है और अपकार करने वाले को उस पाप का फल भी नहीं भोगना पड़ता; अत: अपराध करने और सहने वाले का मेल पुन: हो सकता है। पूजनी बोली- राजन! इस प्रकार कभी वैर शान्‍त नहीं होता है। ‘शत्रु ने मुझे सान्‍त्‍वना दी है’, ऐसा समझकर उस पर कभी विश्‍वास नहीं करना चाहिये। ऐसी अवस्‍था में विश्‍वास करने से जगत में अपने प्राणों से भी (कभी-न-कभी) हाथ धोना पड़ता है, इसलिये वहाँ मोँह न दिखाना ही अच्‍छा है। जो लोग बलपूर्वक तीखे [[शस्त्र|शस्त्रों]] से भी वश में नहीं किये जा सकते, उन्‍हें भी मीठी वाणी द्वारा बंदी बना लिया जाता है। जैसे हथिनियों की सहायता से हाथी कैद कर लिये जाते हैं।
 
ब्रह्मदत्त ने कहा- पूजनी! बदला ले लेने पर तो वैर शान्‍त हो जाता है और अपकार करने वाले को उस पाप का फल भी नहीं भोगना पड़ता; अत: अपराध करने और सहने वाले का मेल पुन: हो सकता है। पूजनी बोली- राजन! इस प्रकार कभी वैर शान्‍त नहीं होता है। ‘शत्रु ने मुझे सान्‍त्‍वना दी है’, ऐसा समझकर उस पर कभी विश्‍वास नहीं करना चाहिये। ऐसी अवस्‍था में विश्‍वास करने से जगत में अपने प्राणों से भी (कभी-न-कभी) हाथ धोना पड़ता है, इसलिये वहाँ मोँह न दिखाना ही अच्‍छा है। जो लोग बलपूर्वक तीखे [[शस्त्र|शस्त्रों]] से भी वश में नहीं किये जा सकते, उन्‍हें भी मीठी वाणी द्वारा बंदी बना लिया जाता है। जैसे हथिनियों की सहायता से हाथी कैद कर लिये जाते हैं।

13:56, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण

एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम (139) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 31-43 का हिन्दी अनुवाद

जब आपस में वैर हो जाय, तब संधि करना ठीक नहीं होता। मैं अब तक जिस उद्देश्‍य से यहाँ रही हूँ, वह तो समाप्‍त हो गया। जो पहले का अपकार करने वाला प्राणी है, वह दान और मान से पूजित हो तो भी उसका मन विश्‍वस्‍त नहीं होता। अपना किया हुआ अनुचित कर्म ही दुर्बल प्राणियों को डराता रहता है। जहाँ पहले सम्‍मान मिला हो, वहीं पीछे अपमान होने लगे तो प्रत्‍येक शक्तिशाली पुरुष को पुन: सम्‍मान मिलने पर भी उस स्‍थान का परित्‍याग कर देना चाहिये। राजन! मैं आपके घर में बहुत दिनों तक बड़े आदर के साथ रही हूँ, परंतु अब यह वैर उत्‍पन्‍न हो गया; इसलिये मैं बहुत जल्‍दी यहाँ से सुखपूर्वक चली जाऊँगी। ब्रह्मदत्त ने कहा- पूजनी! जो एक व्‍यक्ति के अपराध करने पर बदले में स्‍वयं भी कुछ करे, वह कोई अपराध नहीं करता- अपराधी नहीं माना जाता। इससे तो पहले का अपराधी ऋणमुक्‍त हो जाता है; इसलिये तू यहीं रह। कहीं मत जा। पूजनी बोली- राजन! जिसका अपकार किया जाता है और जो अपकार करता है, उन दोनो में फिर मेल नहीं हो सकता। जो अपराध करता है और जिस पर किया जाता है उन दोनो के ही हृदयों में वह बात खटकती रहती है।

ब्रह्मदत्त ने कहा- पूजनी! बदला ले लेने पर तो वैर शान्‍त हो जाता है और अपकार करने वाले को उस पाप का फल भी नहीं भोगना पड़ता; अत: अपराध करने और सहने वाले का मेल पुन: हो सकता है। पूजनी बोली- राजन! इस प्रकार कभी वैर शान्‍त नहीं होता है। ‘शत्रु ने मुझे सान्‍त्‍वना दी है’, ऐसा समझकर उस पर कभी विश्‍वास नहीं करना चाहिये। ऐसी अवस्‍था में विश्‍वास करने से जगत में अपने प्राणों से भी (कभी-न-कभी) हाथ धोना पड़ता है, इसलिये वहाँ मोँह न दिखाना ही अच्‍छा है। जो लोग बलपूर्वक तीखे शस्त्रों से भी वश में नहीं किये जा सकते, उन्‍हें भी मीठी वाणी द्वारा बंदी बना लिया जाता है। जैसे हथिनियों की सहायता से हाथी कैद कर लिये जाते हैं।

ब्रह्मदत्त ने कहा- पूजनी! प्राणों का नाश करने वाले भी यदि एक साथ रहने लगें तो उन में परस्‍पर स्‍नेह उत्‍पन्‍न हो जाता है और वे एक-दूसरे का विश्‍वास भी करने लगते हैं; जैसे श्‍वपच (चाण्‍डाल) के साथ रहने से कुत्‍ते का उसके प्रति स्‍नेह और विश्‍वास हो जाता है। आपस में जिनका वैर हो गया है, उनका वह वैर भी एक साथ रहने से मृदु हो जाता है, अत: कमल के पत्‍ते पर जैसे जल नहीं ठहरता है, उसी प्रकार वह वैर भी टिक नहीं पाता है।

पूजनी बोली- राजन! वैर पांच कारणों से हुआ करता है; इस बात का विद्वान पुरुष अच्‍छी तरह जानते हैं। 1. स्त्री के लिये, 2. घर और जमीन के लिये, 3. कठोर वाणी के कारण, 4. जातिगत द्वेष के कारण और 5. किसी समय किये हुए अपराध के कारण। इन कारणों से भी ऐसे व्‍यक्ति का वध नहीं करना चाहिये जो दाता हो अर्थात परोपकारी हो, विशेषत: क्षत्रिय नरेश को छिपकर या प्रकट रूप में ऐसे व्‍यक्ति पर हाथ नहीं उठाना चाहिये। पहले यह विचार कर लेना चाहिये कि उसका दोष हल्‍का है या भारी। उसके बाद कोई कदम उठाना चाहिये।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः